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२२८ | जैन कथामाला (राम-कथा)
सुन्दरी तुनक गई
--पथिक ! आप अपनी राह जाइए। एक तो वाधा बनकर खड़े हो गये और दूसरे व्यर्थ के प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मधुर स्वर में लक्ष्मण ने आश्वस्त किया
-देवि ! मुझे अपना पूरा वृत्तान्त वताओ। तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि भरसक तुम्हारी सहायता करूंगा।
नवयौवना कहने लगी
-~-महाभाग ! मेरा नाम वनमाला है। मैं विजयपुर नरेश महीधर और रानी इन्द्राणी की पुत्री हूँ। मैंने बाल्यावस्था में ही दशरथनन्दन लक्ष्मण के रूप और गुण की प्रशंसा सुनी तो प्रतिज्ञा कर ली कि उन्हें ही पति रूप में प्राप्त करूंगी। माता-पिता भी मेरी इच्छा से सहमत थे।
दैवयोग से राम-लक्ष्मण सीता वन को निकल पड़े तो पिता ने अपना विचार बदल दिया और चन्द्रनगर नरेश वृषभ के पुत्र सुरेन्द्ररूप के साथ मेरा विवाह करने का निश्चय कर लिया।
लक्ष्मण को सम्बोधित करके उसने कहा--
-~-अब आप ही कहिए और उपाय भी क्या है। आर्य-ललना जिसे एक वार तन-मन-वचन से पति मान लेती है उसके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुप का स्वप्न में भी विचार नहीं करती । इस जन्म में लक्ष्मण न मिले तो अगले जन्म में ही सही। अव तो आपने मेरी पूरी कथा सुन ली । मेरे कार्य में बाधक मत बनिये । मुझे मर जाने दीजिए।
लक्ष्मण के मुख पर प्रसन्नता भरी मुस्कराहट खेल गई । बोले--अव तो तुम्हारी मृत्यु का कोई कारण ही न रहा।
-क्यों ? -~~-क्योंकि लक्ष्मण तुम्हारे सामने ही खड़ा है।