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२०४ | जैन कथामाला (राम-कथा)
भरत को पास बुलाकर राजा दशरथ ने कहा
- वत्स ! राम, लक्ष्मण तो वापिस आये नहीं । अव तो राज्य सँभालो ।
भरत ने उत्तर दिया- पिताजी ! मैं किसी भी दशा में सिंहासन पर नहीं बैठूंगा ।
- पुत्र ! तुम मेरे संयम ग्रहण करने में विघ्न वन गये हो ।
सुमन्त्र को रथ तैयार करने का आदेश दिया । मन्त्री सुमन्त्र ने उनकी आज्ञा पालन की । वे तीनों रथ पर सवार होकर पहले तो उत्तर दिशा की ओर गये और फिर मुड़कर दक्षिण की ओर चले गये ।
राम समस्त पुरवासियों को छोड़कर रात्रि के अन्धकार में ही चले गये थे ।
श्रीराम ने श्रृंगवेरपुर पहुँचकर सुमन्त्र को लोटा दिया । वहाँ के राजा निषादराज गुह से मिलकर उन्होंने नाव द्वारा गंगा नदी पार की और चित्रकूट की ओर चले गये ।
[वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड ]
नोट -यहाँ नाविक केवट का कोई उल्लेख नहीं है ।
- सम्पादक
इसके पश्चात आगे वर्णन है कि राम वन गमन की छठी रात्रि को पुत्र शोक से विह्वल राजा दशरथ के प्राण-पखेरू उड़ गये ।
यहाँ राजा दशरथ की युवावस्था की एक घटना दी गई है । मृगया के प्रेमी राजा दशरथ ने रात्रि के अन्धकार में सरयू नदी के तट पर घड़े में जल भरते हुए एक मुनि कुमार का शब्दवेधी वाण से बध कर दिया था। जब वे मरते हुए मुनिकुमार से पूछकर उसके अन्धे और अपाहिज माता-पिता के पास पहुँचे तो उन्होंने उसे भी पुत्र-शोक से मरने का शाप दिया था । वृद्ध युगल वैश्य थे और वन में वानप्रस्थी
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