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दशरथ को वैराग्य | १६३ राजा ने श्रीसंघ को भक्तिपूर्वक नमन-वन्दन किया और गुरुदेव की देशना सुनने हेतु उचित स्थान पर बैठ गया ।
उसी समय विद्याधर चन्द्रगति भी पुत्र भामण्डल तथा अन्य अनेक विद्याधरों के साथ रथावर्त पर्वत के भगवन्तों की वन्दना करके आकाश: मार्ग से जा रहा था। उसने जो भूमि पर श्रीसंघ को विराजमान देखा तो नीचे उतरकर उनकी वन्दना करके देशना सुनने हेतु आ वैठा । उसके साथ ही भामण्डलकुमार तथा अन्य विद्याधर राजा भी बैठ गये।
चतुर्बानी मुनि ने समयोपयोगी देशना दी और ब्रह्माचर्य व्रत की महिमा तथा अब्रह्म के दोष वताये । सीता के न मिलने से विद्याधर
अधिकारी विनम्र स्वर में बोला
-मेरी वृद्धावस्था, महाराज ! देखिए वाल सफेद हो गये, दाँत टूट गये, हाथ-पैर काँपते है, मुख पर झुर्रियां पड़ गईं । शरीर-बल क्षीण हो गया । नाथ ! अब मैं तीव्र गति से नही चल सकता। मेरी विवशता को देखते हुए अपराध क्षमा हो, अन्नदाता !
रानी तो अधिकारी की विवशता से सन्तुष्ट हो गई किन्तु धर्मात्मा राजा दशरथ के हृदय में चिन्ता की लहर दौड़ गई । उनकी विचारधारा दूसरी ओर मुड़ी-'एक दिन यही दशा मेरी भी होनी है । हाय ! मैं सुख-भोगों मे ही लगा रहा। सर्वविरति रूप धर्म का आराधन नहीं किया । मुझे शीघ्रातिशीघ्र प्रवजित होकर आत्म-कल्याण में लग जाना चाहिए । क्या रखा है रानियों मे ?' राजा ने इधर-उधर देखा तो रानी और अधिकारी दोनों ही जा चुके थे।
राजा के हृदय में वैराग्य भाव जाग्रत हो चुका था । वे उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
(त्रिषष्टि शलाका ७४ - गुजराती अनुवाद पृष्ठ ७०-७१)