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: १६: हनुमान का जन्म
उस भयानक और निर्जन वन में दोनों सखियों-अंजना और वसन्ततिलका ने रात्रि व्यतीत की और प्रातः होते ही पिता की नगरी महेन्द्रपुर को प्रस्थान किया। दीन हीन मलिन बाला राजमहल के द्वार पर पहुंची तो पिता महेन्द्र ने सारी हकीकत जान उसे कलंकिनी ही समझा। माता ने भी दुत्कार दिया- 'कलंकिनी ! तू होते ही क्यों न मर गई ? मेरी कोख लजा कर जीवित खड़ी है, किसी कुए-तालाव में डूव मर !'
भाई अरिंदम ने व्यंग वाण मारे-कुलटा ! अव यहां क्या हम सबके मुंह पर भी कालिख पोतने आई है। जिसके साथ मुंह काला किया उसी के पास जा।
पिता के तीक्ष्ण शब्द थे—मेरी उज्ज्वल कीति को कलंकित करने वाली तू मेरी पुत्री नहीं शत्रु है । अरे ऐसा तो निकृष्ट शत्रु भी नहीं करता जैसा तूने किया।
माता-पिता-भाइयों ने ही जव दुत्कारा तो उसे संसार में चारों ओर अंधेरा ही नजर आने लगा। अँधेरे में चमक की एक लकीर दिखाई दी, मन्त्री के सहानुभूतिपूर्ण वचन । उसने महाराज से कहा
-राजन् ! विवेक से काम लीजिए। यह कलंकिनी है या नहीं