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११० जैन कथामाला (राम-कथा)
प्रहसित समझ गया कि पवनंजय की बुद्धि पर भ्रम का काला परदा पड़ गया है । उसे किसी दूसरे ढंग से समझाकर विवाह के लिए तैयार करना चाहिए। जब पति-पत्नी मिलन होगा तो भ्रम की दीवार स्वयं ही ढह जायेगी। सोच-विचार कर बोला___-मित्र ! वचन भंग करोगे। तुम्हारे पिता का दिया हुआ वचन टूट जायगा तो उनकी क्या दशा होगी ? कुछ सोचा है, तुमने ।
पवनंजय इस बात का कुछ भी प्रत्युत्तर न दे सका और मित्र के । मुख की ओर देखने लगा। ' प्रहसित ही पुनः बोला
-कुमार ! क्षत्रिय को वचन भंग होने का दुःख मृत्यु से भी बढ़ कर होता है । तुम्हारे पिता की आज्ञा है विवाह करने की और तुम्हारा कर्तव्य है उनकी आज्ञा का पालन । पिता की आज्ञा समझ कर ही विवाह करो।
कुमार मौन हो गया किन्तु उसके हृदय की शल्य नहीं निकली।
तीसरे दिन पवनंजय और अंजना का विवाह हो गया। राजा महेन्द्र ने स्वागत-सत्कार करके उन्हें विदा कर दिया और प्रह्लाद सपरिवार अपने नगर को चला आया।
नवदम्पत्ति को महल की सातवीं मंजिल पर भवन दिया गया। बड़े प्यार और स्नेह से सासू केतुमती ने अंजना को वहाँ पहुँचा दिया।
पति की प्रतीक्षा करती हुई अंजना अपनी सुहाग सेज पर उत्कंठित हृदय लिए बैठी रही किन्तु पति-मिलन न हुआ। रात्रि आती, सुहागिनी प्रतीक्षा करती और दिन निकल आता। पति-मिलन की तो वात ही क्या अंजना को तो पति-दर्शन भी दुर्लभ हो गये। एक ही महल में रहते हुए तानपति पति की एक झलक पाने को भी तरसतरस जाती।