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हिंसक यज्ञों के प्रचार की कहानी | ८७ हे राजाओ ! इस प्रकार पाप रूपी पर्वत के समान पर्वत ने हिंसक यज्ञों का प्रारम्भ और प्रचार किया ।...
- लंकापति रावण इस वृत्तान्त को सुनकर सब कुछ स्पष्ट समझ गया। उसने निर्णयात्मक स्वर में कहा.-आज से इन हिंसक यज्ञों का विरोध मेरा प्रथम कर्तव्य होगा। .. इस निर्णय से नारद को शान्ति मिली। लंकेश ने उन्हें सम्मान पूर्वक विदा कर दिया और मरुतराज को क्षमा प्रदान की। मरुत. राजा ने विनम्र शब्दों में पूछा
-स्वामी, यह कृपालु साधु कौन था जिसने आपके माध्यम से मुझे इस घोर पाप से विरत किया।.....
रावण नारद की उत्पत्ति वताने लगा--.. ...वह्मरुचि नाम का एक ब्राह्मण तापस हो गया था। उसकी स्त्री कुर्मी सगर्भा थी। एक बार उसके आश्रम में कुछ साधु आये। उनमें से एक साधु वोला .
-तापस ! तुमने संसार का त्याग किया यह तो. उत्तम है किन्तु अव भी स्त्री भोग से विरत नहीं हुए तो तुममें और गृहस्थ में अन्तर ही क्या है ? ...यह सुनकर तापस को बोध हुआ। उसने निर्मल जिन शासन को ग्रहण कर लिया। कुर्मी भी श्राविका हो गई। ब्रह्मरुचि तो दीक्षा लेकर उन साधुओं के साथ चला गया। किन्तु कुर्मी ने वहीं रहकर एक पुत्र प्रसव किया। वह पुत्र जन्म के समय रोया नहीं इसीलिए उसका नाम नारद पड़ा। - एक बार पुत्र को अकेला छोड़कर कुर्मी कहीं दूसरी जगह गई थी। उसकी अनुपस्थिति में जम्भृक देवों ने उस पुत्र का हरण कर लिया। पुत्र शोक से दुःखी कुर्मी ने इन्दुमाला आर्या के पास दीक्षा ले ली।