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महाबली बाली | ५३
रावण पहाड़ के नीचे से निकलकर बाहर आया । उसे मुनि वाली की शक्ति और अपनी क्षुद्रता का विश्वास हो चुका था । आकर महामुनि के चरणों में गिर गया और उनकी स्तुति करने लगा किन्तु मुनिराज तो ध्यान में लीन हो चुके थे । मुनियों का चरित्र ऐसा ही होता है, जगत के प्राणियों के उपकार हेतु कोई क्रिया की और फिर आत्म-ध्यान में लीन हो गये ।
मुनि वाली की वन्दना करके रावण अष्टापद तीर्थ में पहुँचा और परिवार सहित भगवान का गुणगान करके मधुर स्वर में स्तुति गाने लगा ।
उसी समय धरणेन्द्र भी भगवान की वन्दना करने आया और रावण की स्तुति से बहुत प्रसन्न हुआ । भगवान की वन्दना के वाद
विमान का मार्ग अवरुद्ध होने के कारण दशानन कुपित तो था ही । पर्वत को समूल उखाड़कर नष्ट करने हेतु वह उसके नीचे घुस गया. | अपनी विशाल बीस भुजाओं से उसने उसे उठा लिया । पर्वत के हिलते ही शंकरजी के गण काँप गये । तत्र शंकरजी ने उसे अपने पैर के अँगूठे से खिलवाड़ में ही दवा दिया ।
अँगूठे का भार न सह पाने के कारण रावण रोने लगा । वह एक हजार वर्ष तक पर्वत के नीचे दवा शंकरजी की स्तुति करता रहा । प्रसन्न होकर शंकर ने अपने अंगूठे का दबाव हटा लिया ।
शंकरजी उससे बोले— दशानन ! मैं तुम्हारे पराक्रम (एक हजार वर्ष तक अंगूठे का दवाब सहने का पराक्रम) से प्रसन्न हूँ । तुम्हारे भयंकर राव ( रुदन) से तीनों लोकों के प्राणी रो पड़े थे । अतः तुम 'रावण' नाम से प्रसिद्ध होंगे ।
साथ ही रावण की याचना पर उन्होंने चन्द्रहास नाम का खड्ग भी दिया । [ उत्तरकाण्ड : वाल्मीकि रामायण ]