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अध्याय 3
जैन कथा - साहित्य में प्रतिबिम्बित धार्मिक जीवन
भारतीय समाज में सदैव अनेक सांस्कृतिक स्तर संग्रहीत रहे हैं और उनके अनुरुद्ध
धार्मिक निष्ठ भी विविध रही है । भगवद्गीता में कहा गया है
“सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धाम योऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षांसि राजसाः ।
प्रतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसाः जनाः ॥
अर्थात् 'सबकी श्रद्धा सत्तवानुरूप होती है, मनुष्य श्रद्धामय है, जिसकी जैसी श्रद्धा है, वह वैसा ही है। सात्त्विक पुरुष देवताओं का यजन करते हैं, राजसिक यक्ष-राक्षसों का, तथा अन्यतामसिक जन भूत-प्रेतों का देव - पूजा वैदिक थी और यहाँ सात्विक कही गयी है । यक्ष-पूजा, 'जिसे यहाँ राजस कहा गया है, साधारण जनता में सुप्रचलित थी । यह शब्द प्राय: देवता के समान ही अर्थ रखता है, और यक्ष पूजा को अनेकांश में आर्य-धर्म का ही प्रचलित, परिवर्तित रूप मानना अयुक्त न होगा । यक्षों को अलौकिक सत्त माना जात था जो प्रयः वृक्षों में निवास करते थे और प्रसन्न होने पर नाना सांसारिक कामनाओं की पूर्ति का वर देते थे। वे अनेकत्र स्थान-देवता अथवा कुलदेवता के रूप में प्रतिष्ठित थे । यम और शुक्र के साथ उनका विशेष संबंध था । कभी वे अनिष्टकारी भी हो सकते थे और आवेश के कारण भी बन थे । यक्षियों में अप्सराओं को सदृश्य देखा जा सकता है और कभी वे पुरुषों को प्रलोभित करती मिलती
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