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है। कथा साहित्य के आलोचकों के अनुसार “साहित्य के माध्यम से डाले जाने वाले जितने प्रभाव हो सकते हैं, वे रचना के इस प्रकार में इस तरह से उपस्थित किये जा सकते हैं, चाहे सिद्धांत प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र-चित्रण सुन्दरता इष्ट हों, किसी घटना का महत्व निरुपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्षय बनाया जाय, क्रिया का वेग अंकित करना हो या मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करना इष्ट हो-सभी कुछ इसके द्वारा सम्भव है” । अतएव स्पष्ट है कि प्राकृत कथाओ का आर्विभाव आगम साहित्य से हुआ है।
प्राकृत कथा साहित्य के विभिन्न आलोचकों द्वारा इसके विकास का आकलन कालक्रमानुसार किया गया है। नेमिचन्द्र शास्त्री ने हरिभद्र को केन्द्र मानकर जैन पाकृत-कथा साहित्य को पाँच कालखण्डों ने विभक्तकर, विभिन्न कथा-ग्रन्थों का विस्तृत विश्लेषण किया।" यह वर्गीकरण इस प्रकार है:-आगमकालीन प्राकृत कथा साहित्य, टीकाकालीन प्राकृत कथा साहित्य, पूर्व हरिभद्र कालीन स्वतन्त्र प्राकृत कथा साहित्य, हरिभद्र कालीन प्राकृत कथा सहित्य उत्तर हरिभद्रकालीन प्राकृत कथा-साहित्य ।
कथा साहित्य के विकासक्रम को दृष्टि से कथा का विकास असम्भव से दुर्लभ, दुर्लभ से सम्भव और सम्भव से सुलभ की ओर होता है। आगमकालीन कथाओं में वैभव का निरूपण व्रतों, आचारों, अतिचारों, परिमाणों के स्थूल चित्रण, चरित्र की शुद्धता आदि पर अत्यधिक बल दिया गया है। आगमकालीन कथा साहित्य में नायाधमकहाओ का महत्वपूर्ण स्थान है, इनमें त्याग, संयम, एवं तप आदि धार्मिक उपदेशों को उदाहरण, रूपक, सवांद और उपमाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। धन्यसार्थवाह और उनकी चार बहुओं की सुन्दर लोककथा द्वारा कल्याण मार्ग का उपदेश दिया गया है। जिन पालित और जिनरक्षित के वार्तालाप में संसार के प्रलोभनों से बचने के लिए प्रात्साहित करने का उपदेश है। सूत्रकृतांग धार्मिक उपदेशों से युक्त एक अन्य कृति है। इसीकाल का एक अन्य धार्मिक काव्य उत्तराध्ययन सूत्र है, जिसमें उपमा और दृष्टांत आदि के माध्यम से त्याग और वैराग्य का उपदेश दिया गया है।