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उचित और अनुचित माध्यमों का भी उपयोग होता था। कुछ कार्य ऐसे थे जिससे धन तो आता था किन्तु वे उपाय निन्दनीय समझे जाते थे और कुछ कार्य एसे थे जो निन्दनीय नही थे, यद्यपि उनसे लाभ सीमित होता था। एक कथा मे कहा गया है कि अर्थ ही देवता है, यही सम्मान बढ़ाता है, यही गौरव पैदा करता है, यही मनुष्य का मूल्य बढ़ाता है, यही सुन्दरता का कारण है, यही कुल, रूप, विद्या और बुद्धि का प्रकाशन करता है ।320 धन के अभाव में मनुष्य की कोई भी स्थिति संभव नही है। सारे सुखों का साधन धन ही है।
जीविकोपार्जन के साधनः-हरिभद्र ने जीविकोपार्जन के मुख्य साधनों में असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और मृत्य कर्म को गिनाया है। हरिभद्र के पूर्व परम्परा प्रचलित पन्द्रह कार्यों को खर कर्म कहा है और धर्मात्मा व्यक्ति को इनके करने का निषेध किया है। जैन आगम साहित्य में भी इन खर कर्मों का निर्देश मिलता है। उद्योतन सूरि ने धनार्जन के दो साधनों, निन्दित और अनिन्दत साधनों का उल्लेख किया है। निन्दित और अनिन्दित मायादित्य
और स्थाणु के मन में जब धन कमाने की बात उठी तथा पहला प्रश्न यही उठा कि कैसे धन कमाया जाय, क्योंकि बिना धन के धर्म और काम दोनों लौकिक पुरूषार्थ पूरे नही हो सकते ।321 तब मायादित्य ने सुझाव प्रस्तुत किया-'मित्र, यदि ऐसी बात है तो वाराणसी चलो। वहाँ हम लोग जुआ खेलेंगे, सेंध लगायेंगे, कर्णाभूषण छीनेंगे, राहगीरों को लूटेंगे, जेब काटेंगे, मायाजाल रचेंगे, लोगों को ठगेंगे और वह सब काम हम करेंगे, जिस-जिस साधनसे धन की प्राप्ति होगी322 स्थाणु को यह सुनकर बड़ी चिन्ता हुई। उसने इने धनार्जन के निन्दित साधन बतलाया, जो उसके साधु स्वभाव के विपरीत थे और उनको करने में दोष लगता था ।323 इन निन्दित साधनों के अतिरिक्त, जैन कथाओं में जीव-जन्तुओं को बेचकर धन कमाना निन्दनीय समझा गया है। जो ऐसा करता है वह मरकर दासत्व प्राप्त करता है ।324 जैन आगम साहित्य में निम्न को को करने का निषेध है325: