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था युवतियों की भी यही दशा होती थी । गुप्त रूप से प्रेम पत्रों का प्रकरण प्रारम्भ होता था । तत्पश्चात प्रेमी और प्रेमिका का विवाह सम्पन्न हो जाता था । स्वयंवर का भी आयोजन होता
था। वसुदेव हिण्डी का पात्र धम्मिल कुमार प्रेम क्रीड़ा में कुशलता प्राप्त करने के लिये वसंत सेना नाम की गणिका के घर पर ही समय व्यतीत करने लगा था । कुवलयमाला में भी प्रेम और श्रृंगार रस पूर्ण बहुत से चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। वासभवन में प्रवेश करते समय कुवलयमाला और सहेलियों में प्रश्नोत्तर का क्रम चलता है । कथाकोष प्रकरण में भी प्रेमालाप के प्रसंगों का उल्लेख प्राप्त होता है । प्राकृत कथा संग्रह में भी सुर सुंदरी का आख्यान एक प्रेमाख्यान है
कथा-साहित्य में 11वीं-12वीं शताब्दी ईसवी में तान्त्रिकों का जोर प्रदर्शित होता है । कापालिक और वाममार्गी श्री पर्वत से जालंधर तक भ्रमण करते थे । कुवलयमाला में सिद्ध पुरूषों का वर्णन है । धातुवादी, क्रियावादी तान्त्रिक विद्या का सहारा लेकर विविध प्रकार की तान्त्रिक करतूतों का प्रदर्शन करते थे । सुर सुन्दरी चरिउ में भूत भगाने और रक्षा पोटली बांधने का वर्णन है I
कथा - साहित्य की भाषा
जैन कथा-साहित्य का सृजन मुख्यतः प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में किया गया है। महेश्वसूरि के मतानुसार बोधगम्य प्राकृत काव्य की रचना इसलिये की गई क्योंकि अल्पबुद्धि वाले लोगों को संस्कृत ग्राहय नहीं थी । प्राकृत भाषा की इन रचनाओं को हर्मन जैकोबी ने महाराष्ट्री - प्राकृत कहा है। धर्मोपदेश माला विवरण में महाराष्ट्री भाषा की कामिनी और अटवी के साथ तुलना करते हुये, उसे सुललित पदों से संपन्न, कामोत्पादक तथा सुन्दर वर्णो से शोभित बताया है-6 । प्राकृत के इन ग्रन्थों में कई स्थानों पर सूक्तियों सुभाषितों से काम लिया गया है। देशी भाषा के बहुत से शब्द कई स्थलों पर उपयोग किये गये हैं । उदाहरण स्वरूप सुयर पिल्लव, सुअर का पिल्ला (वसुदेव हिण्डी), छोयर (छोकरा, उपदेशपद), जोहार (जुहार; धर्मोपदेश माला), चिडम (चिड़िया; ज्ञान पंचमी कहा) नाहर (सिंह, सुदसंण चरिये) आदि ।
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