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चन्द्रमा:-जैन कथा साहित्य में चन्द्रमा को भी देवता के रूप में जाना जाता था।292 हवन और यज्ञ आदि कार्यों में अन्य देवताओं की तरह चन्द्रमा की भी अलौकिक शक्ति में विश्वास कर उनकी पूजा का विधान था। वह सफल जन मन आनन्दकारी मृगलक्षण युक्त देव के रूप में पूजनीय थे ।293 अथर्ववेद में भी चन्द्रमा को देवताओं की श्रेणी में उल्लिखित किया गया है ।294 विष्णुधर्मोत्तर में रोच देवता का उल्लेख आया है। रोच शब्द का अर्थ रुचि (इच्छा) से लगाया जाता था, वहाँ चन्द्ररोच का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।295 याज्ञवल्क्य स्मृति में चन्द्रमा को नौ ग्रहों में से एक माना गया है और इन नौ ग्रहों (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र शनि, राहु और केतु) की पूजा के लिए उनकी मूर्तियाँ क्रम से ताम्र, स्फटिक, लाल चन्दन, सोना, (बुध तथा बृहस्पति के लिए, रजत, लोहा, सीसा, एवं काँसे की बनी होनी चाहिए।296 भगवद् गीता में सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि आदि देवताओं को विष्णु के नाना रूपों में बताया गया है ।297 इस प्रकार यह बात स्पष्ट होती है कि वैदिक काल से ही चन्द्रमा को सूर्य इन्द्र अग्नि आदि की श्रेणी में रखा जाने लगा था और स्मृतिकाल तक आते-आते इन्हें (चन्द्रमा को) नौ ग्रहों में से एक मानकर पूजा जाने लगा। यहाँ चन्द्रमा के स्वरूप का उल्लेख तो नहीं प्राप्त होता है, किन्तु कुछ विद्ववानों की राय में तो अग्नि, वायु, आदित्य, पृथ्वी और चन्द्रमा आदि प्रत्यक्ष दिखाई देने में इन्हें मृगलक्षण युक्त बताया गया है। संभवत: इन्हें प्राकृतिक देव के रूप में स्वीकृत किया गया था। प्राचीन जैन और बौद्ध ग्रन्थ, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, यम, कुबेर, आदि देवताओं के स्वरूप गुण अवगुण, मान्यता तथा पूजा आदि के सम्बन्ध में एक दूसरे का सर्मथन नहीं करते, लेकिन महाकाव्यों में उल्लिखित इन आठ देवताओं बाद के ग्रन्थों में दिक्पाल के रूप में चार मुख्य और चार गौण दिशाओं का अधिपति देव माना जाने
लगा।298
इन्द्रः-जैन कथाओं में अन्य देवताओं के साथ देवराज इन्द्र298 की अलौलिक शक्ति में विश्वास का भी उल्लेख है। एक स्थान पर इन्हें पुरंदर) कहा गया है। वैदिक काल से इन्द्र की प्रतिभा एवं स्वरूप का संकेत प्राप्त होता है। ऋग्वेद में इन्द्र को तुविग्रीय
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