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स्थापित हो गया था। आलोचकों का मानना है कि यह कथा चेतना का सबसे महत्वपूर्ण विकास है जो हरिभद्र के अनन्तर कथाओं में बराबर बना रहा।14 हरिभद्रयुगीन प्राकृत कथा साहित्य में वस्तु के अनुसार शिल्प गठन एक स्वीकृति सत्य है। यह प्रवृत्ति कथा वस्तु के साथ एक अभूतपूर्व संगति के रूप में पुन: प्रकट हुयी है, जो तरंगवईकथा के पश्चात लुप्तप्राय हो गयी थी। इस युग की सर्वप्रमुख विशेषता कथा की निष्ठा का विकास है। निष्ठा का अर्थ है कथा साहित्य को एक-पूर्ण, समर्थ साहित्यिक विधामानकर उसकी व्यवस्था की चेतना। इस निष्ठा का पहला रूप है व्यंग्य और हास्य की सूक्ष्मता का समा हार तथा आलोचनात्मक दृष्टि का समन्वय । व्यंग्य और हास्य में धार्मिक उपयोगिता वाद से भिन्न एक विशुद्ध कलात्मक उपयोगितावाद की स्थापना, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धियाँ आर मनोरंजन के साथ धर्मतत्व की प्राप्ति आदि सम्मिलित है कथाओं का वर्गीकरण कथानक रूढियों का बहुल प्रयोग और लोक-कथाओं का अभिजात्य कथाओं के रूप में परिवर्तन निष्ठा का दूसरा रूप है। हरिभद्र के समय के में सम्बन्ध में चार मान्यतायें प्रसिद्ध हैं। परम्परागत मान्यता के अनुसार हरिभद्र का स्वर्गारोहण का काल ईसवी सन् 527 माना जाता है ।15 मुनिजिन विजय जी के अनुसार 700-770 ईसवी सन् है,16" जबकि आभ्यंकर ने विक्रमी संवत् 800-950 तक हरिभद्र का समय माना है ।17, महेन्द्रकुमार जी के अनुसार आचार्य हरिभद्र का समय ई. सन् 720 से 810 तक माना गया है।18” इन मतो के विश्लेषण के आधार पर आलोचकों ने हरिभद्र का समय 730-830 ई. तक माने जाने की संस्तुति की है।19' हदिभद्र के प्राकृत कथाओं में समराइच्चहा, और धूर्ताख्यान प्रमुख स्थान रखते हैं। इन कथाग्रन्थों के अतिरिक्त टीका और चूर्णियों में उदाहरण के रूप में हरिभद्र ने अगणित दृष्टान्त कथाओं की रचना की समराइच्चकहा में प्रतिशोध भावना की प्रधानता है एवं यह भावना विभिन्न रूपों में व्यक्त हुयी है। समराइच्चकहा में नायक सदाचारी और प्रतिनायक के नौ जन्मों तक चलने वाली जीवन-संघर्ष की कथा लिखी गयी हैं। जबकि धूर्ताख्यान व्यंग्य प्रधान रचना है। इसमें पुराणों में वर्णित असम्भव और अविश्वसनीय बातों का पाँच धूतों की कथाओं द्वारा प्रत्याख्यान प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि इस रचना
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