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स्त्रियों के अधिकार श्रीजिनेन्द्रपदांभोजसपर्यायां सुमानसा । शचीव सा तदा जाता जैनधर्मपरायणा ॥८६॥ ज्ञानधनाय कांताय शुद्धचारित्रधारिणे । मुनीन्द्राय शुभाहारं ददौ पापविनाशनम् ॥८७॥
-गौतमचरित्र तीसरा अधिकार ॥ अर्थात्-स्थंडिला नाम की ब्राह्मणी जिन भगवान की पूजा में अपना चित्त लगाती थी और इन्द्राणी के समान जैनधर्म में तत्पर होगई थी। उस समय वह ब्राह्मणी सम्यग्ज्ञानी शुद्ध चरित्रधारी उत्तम मुनियों को पापनाशक शुभ आहार देती थी। __ इसी प्रकार त्रियों को धार्मिक स्वतंत्रता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जहां तुलसीदासजी ने लिख मारा है कि
ढोर गंवार शूद्र अरु नारी ।
ये सब ताड़न के अधिकारी ॥ वहां जैनधर्म ने स्त्रियों की प्रतिष्टा करना बताया है, सन्मान करना सिखाया है और उन्हें समान अधिकार दिये हैं। जहां वेदों में स्त्रियों की पढ़ाने की आज्ञा नहीं है वहां जैनियों के प्रथनार्थकर भगवान आदिनाथ ने स्वयं अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी ना क पुत्रियों को पढ़ाया था। उन्हें स्त्री जाति के प्रति बहुत सन्मान था। पुत्रियों को पढ़ाने के लिये वे इस प्रकार उपदेश करते हैं कि
इदं वपुर्वयश्चेदमिदं शीलमनीदृशं । विद्यया चेद्विमप्येत सफलं जन्म वामिद ।। 8७॥ विद्यवान् पुरुषो लोके सम्मतिं याति कोविदः। नारी च तद्वती पत्ते स्त्रीसप्टेरग्रिमं पटं ॥ ६८.॥