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स्त्रियों के अधिकार
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इसी प्रकार महारानियों का राजसभाओं में जाने और वहां पर सन्मान प्राप्त करने के अनेक उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं । जब कि वेद आदि स्त्रियों को धर्म ग्रन्थों के अध्ययन करने का निषेध करते हुये लिखते हैं कि "स्त्रीशूद्रौना धीयाताम्” तब जैनग्रंथ त्रियों को ग्यारह अंग की धारी होना बताते हैं । यथाद्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेवेश्वरो गणी |
एकादशांग भृञ्जताऽऽर्थिक पि तुलोचना ॥ ५२ ॥ . हरिवंशपुराण सर्ग १२ । अर्थात् - जयकुमार भगवान - द्वादशांगधारी गणधर हुआ और सुलोचना ग्यारह अंग की धारक आर्थिका हुई ।
इसी प्रकार स्त्रियां सिद्धान्त ग्रंथों के अध्ययनं के साथ हो जिन प्रतिमा का पूजा प्रक्षाल भी किया करती थीं। अंजना सुन्दरी अपनी सखी वसन्तमाला के साथ वन में रहते हुये गुफा में विराजमान जिनमूर्ति का पूजन प्राल किया था । मदनवेगा ने वसुदेव के साथ सिद्धकूट चैत्यालय में जिन पूजा की थी । मैनासुन्दरी तो प्रति दिन प्रतिमा का प्रज्ञाज करती थी और छापने पति श्रीपाल राजा को गंधोदक लगाती थी । इसी प्रकार स्त्रियों धारा पूजा प्रक्षाल किये जाने के अनेक उदाहरण मिल सकते हैं ।
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हर्ष का विषय है कि आज भी जैन समाज में स्त्रियां पूजन प्रक्षाल करती हैं, मगर खेद है कि अब भी कुछ हठग्राही योग स्त्रियों को इस धर्म कृत्य का अनधिकारी समझते हैं। ऐसी अविचारित बुद्धि पर दया आती है । कारण कि जो स्त्री आर्यिका होने का अधिकार रखती है वह पूजा प्रदाल न कर सके यह विचित्रता की बात है । पूजा प्रज्ञाल तो आरंभ होने के कारण कर्म बंध का निमित्त है, इस से तो संसार ( स्वर्ग आदि) में ही चक्कर लगाना
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