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जैनधर्म को उदारता
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इन टीकाओं से दो वातों का स्पष्टीकारण होता है । एक तो म्लेच्छ लोग मुनि दीक्षा तक ले सकते हैं और दूसरे म्लेच्छ कन्या से विवाह करने पर भी कोई धर्म कर्म की हानि नहीं हो सकती, प्रत्युत उस म्लेच्छ कन्या से उत्पन्न हुई संतान भी उतनी ही धर्मादि की अधिकारिणी होती है जितनी कि सजातीय कन्या से उत्पन्न हुई सन्तान ।
प्रवचनसार की जयसेनाचार्य कृत टीका में भी सत् शूद्र को जिन दीक्षा लेने का स्पष्ट विधान है । यथा - "एवंगुणविशिष्ट पुरुषो जिंनदीक्षा ग्रहणे योग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि "
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और भी इसी प्रकार के अनेक कथन जैन शास्त्रों में पाये जाते. हैं जो जैनधर्म की उदारता के द्योतक हैं। प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक दशा में धर्म सेवन करने का अधिकार है । 'हरिवंशपुराण' के २६ सर्ग के श्लोक १४ से २२ तक का वर्णन देखकर पाठकों को ज्ञात हो जायगा कि जैनधर्म ने कैसे कैसे अस्पृश्य शूद्र समान व्यक्तियों को जिन मन्दिर में जाकर 'धर्म कमाने का अधिकार दिया है। वह कथन इस प्रकार है कि वसुदेव अपनी प्रियतमा मदनवेगा के साथ सिद्धकूट चैत्यालय की वंदना करने गये। वहाँ पर चित्र विचित्र वेषधारी लोगों को बैठा देखकर कुमार ने रानी मदनवेगा से उनकी जाति जानने वावत कहा। तब मदनवेगां बोलो -
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मैं इनमें से इन मातंग जाति के विद्याधरों का वर्णन करती हूँ नीलमेघ के समान श्याम नीली माला धारण किये मातंगस्तंभ के सहारे बैठे हुये ये मातंग जाति के विद्याधर हैं ।। १५ ॥ मुर्दों की
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से युक्त राख के
लपेटने से भद मैले स्मशान
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