________________
-
-
-
-.
.
जैनधर्म की उदारता अधिकार देना ही धर्म की उदारता है। जो लोग मनुष्यों में भेद देखते हैं उनके लिये आचार्य लिखते हैं• "नास्ति जाति कृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत्"
गुणभद्राचार्य। अर्थात्-जिस प्रकार पशुओं में या तिर्यचों में गाय और घोड़े आदिका भेद होता है उस प्रकार मनुष्यों में कोई जाति कृत भेद नहीं है। कारण किं "मनुष्यजातिरेकेव" मनुष्य जाति तो एक ही है। फिर भी जो लोग इन आचार्य वाक्यों की अवहेलना करके मनुष्यों को सैकड़ों नहीं हजारों जातियों में विभक्त करके उन्हें नीच ऊँच मान रहे हैं उनको क्या कहा जाय ? ___याद रहे कि आगम के साथ ही साथ जमाना भी इस बात को वतला रहा है कि मनुष्य मात्र से बंधुत्व का नाता जोड़ो, उनसे प्रेम करो और कुमार्ग पर जाते हुये भाइयों को सन्मार्ग वतायो तथा उन्हें शुद्ध करके अपने हृदय से लगालो। यही मनुष्य का कर्तव्य है यही जीवन का उत्तम कार्य है और यही धर्म का प्रधान अंग है। भला मनुप्यों के उद्धार समान और दूसरा धर्म क्या होसकता है ? जो मनुष्यों से घृणा करता है उसने न तो धर्म को पहिचाना है और न मनुष्यता को ? . वास्तव में जैन धर्म तो इतना उदार है कि जिसे कहीं भी शरण न मिले उसके लिये भी जैन धर्म का फाटक हमेशा खुला रहता है । जव एक मनुष्य दुराचारी होने से जाति वहिष्कृत और पतित किया जा सकता है तथा अधर्मात्मा करार दिया जा सकता है तब यह वात स्वय सिद्ध है कि वही अथवा अन्य व्यक्ति सदाचारी होने से पुनः जाति में आसकता है, पावन हो सकता है और धर्मात्मा बन सकता है। समझ में नहीं आता कि ऐसी