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जाति भेद का आधार आचरण पर है। १६ होना ही चाहिये इसकी क्या जरूरत है ? जिस जाति को आप नीच समझते हैं उसमें क्या सभी लोग पापी, अन्यायी, अत्याचारी या दुराचारी होते हैं ? अथवा जिसे आप उच्च समझे बैठे हैं उस जाति में क्या सभी लोग धर्मात्मा और सदाचार के अवतार होते है ? यदि ऐसा नहीं है तो फिर आपको किसी वर्ण को ऊंचा या नीच कहने का क्या अधिकार है ?
हां, यदि भेद व्यवस्था करना ही हो तो जो दुराचारी है उसे नीच और जो सदाचारीहै उसे ऊंचकहना चाहिये। श्रीरविणाचार्य ने इसी बात को पद्मपुराण में इस प्रकार लिखा है कि
चातुर्वण्यं यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धं भुवने गतम् ॥ अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वा चाण्डालादिक का तमाम विभाग आचरण के भेद से ही तोक में प्रसिद्ध हुआ है । इसी बातका समर्थन और भी स्पष्ट शब्दों में प्राचार्य श्री अमितगति महाराज ने इस प्रकार किया है कि--
आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम् । · न जातिामणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी ॥ __गुणैः संपद्यते जातिगुणध्वंसैर्पिद्यते ॥
अर्थात्-शुभ और अशुभ आचरण के भेद से ही जातियों में भेद की कल्पना की गई है, लेकिन ब्राह्मणादिक जाति कोई कहीं पर निश्चित, वास्तविक या स्थाई नहीं है । कारण कि गुणों के होने से ही उच्च जाति होती है पार गुणों के नाश होने से उस जाति का भी नाश होजाता है।
पाठको ! इससे अधिक स्पष्ट, सुन्दर तथा उदार कथन और