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१० , जैनधर्म की उदारता
यहां पर कल्पित जातियों या वर्ण का उल्लेख न करके सर्व साधारण को जैनधर्म ही एक शरणभूत बतलाया गया है । जैनधर्म में मनुष्यों की तो बात क्या पशु पती या प्राणी मात्र के कल्याण का भी विचार किया गया है।
आत्मा का सच्चा हितैपी, जगत के प्राणियों को पार लगाने वाला, महा मिथ्यात्व के गड्ढे से निकाल कर सन्मार्ग पर आरूढ़ करा देने वाला और प्राणीमात्र को प्रेम का पाठ पढ़ाने वाला सर्वज्ञ कथित एक जैनधर्म है । इस में कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक धर्मावलम्बी की अपने अपने धर्म के विषय में यही धारण रहती है, किन्तु उसको सत्य सिद्ध कर दिखाना कठिन है । जैनधर्म सिखाता है कि अहम्मन्यता को छोड़ कर मनुष्य से मनुष्यता का व्यवहार करो, प्राणी मात्र से मैत्री भाव रखो,और निरंतर परहित निरत रहो । मनुष्य ही नहीं पशुओं तक के कल्याण का उपाय सोचो और उन्हें घोर दुःख दावानल से निकालो।
धर्म शान इसके ज्वलंत प्रमाण है कि जैनाचार्यों ने हाथी, सिंह,शगाल, शूकर, वन्दर, नौला, आदि प्राणियों को भी धर्मोपदेश देकर उनका कल्याण किया था (देखो आदिपुराण पर्व १० श्लोक १४६) इसी लिये महात्माओं को अकारणवंधु कह कर पुकारा गया है। एक सच्चे जैन का कर्तव्य है कि वह महा दुरानारी को भी धर्मोपदेश देकर उसका कल्याण करे । इस संबंध में अनेक उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं।
(१) जिनभक्त धनदत्त सेठ ने महाव्यसनी वेश्यासक्त दृढ़सूर्यको फांसी पर लटका हुवा देख कर वहीं पर णमोकार मंत्र दिया था, जिसके प्रभाव से वह पापात्मा पुण्यात्मा बनकर देव हुवा था। वही देव धनदन्त सेठ की स्तुति करता हुबा कहता है कि