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जैनाचार्योंका शासनभेद ___ आशा है इस लेखको पढ़कर सर्वसाधारण जैनीभाई, सत्यान्वेषी
और अन्य ऐतिहासिकं विद्वान् ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ नया अनुभव प्राप्त करेंगे और साथ ही इस बातकी खोज लगायँगे कि जैनतीर्थंकरों के शासनमें और किन किन बातोंका परस्पर भेद रहा है ।
जुगलकिशोर मुख्तार
परिशिष्ट
(ख) श्वेताम्बरोंके यहाँ भी जैनतीर्थंकरोंके शासनभेदका कितना ही उल्लेख मिलता है, जिसके कुछ नमूने इसप्रकार हैं:
(१) आवश्यकनियुक्ति में, जो भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी रचना कही जाती है, दो गाथाएँ निम्नप्रकारसे पाई जाती हैं
सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कोरणजाए पडिक्कमणं ॥१२४४ ॥ वावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसति । छेओवडावणयं पुण वयन्ति उसभो य वीरो य ॥ १२४६॥
ये गाथाएँ साधारणसे पाठभेदके साथ,, जिससे कोई अर्थभेद नहीं होता, वे ही हैं जो ' मूलाचार 'के ७ वें अध्यायमें क्रमशः नं० १२५ “और ३२ पर पाई जाती हैं। और इसलिये, इस विषयमें, नियुक्तिकार और मूलाचारके कर्ता श्रीवट्टकराचार्य दोनोंका मत एक जान पड़ता है। १ 'कारणाजाते' अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति इति हरिभद्रः।,