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गुणवत और शिक्षाप्रत __ पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृतमें इन व्रतोंका कथन प्रायः स्वामी समन्तभद्रके मतानुसार ही किया है । गुणनतोंका कथन प्रारंभ करते हुए, टीका, 'आहुर्बुवन्ति स्वामिमतानुसारिणः' इस वाक्यके द्वारा उन्होंने स्वामी समन्तभद्रके मतकी औरोंसे भिन्नता और अपनी उसके साथ अनुकूलताको खुले शब्दोंमें उद्घोषित किया है । परन्तु शिक्षावतोंका प्रारंभ करते हुए टीकामें ऐसा कोई वाक्य नहीं दिया, जिसका कारण शायद यह मालूम होता है कि उन्होंने समन्तभद्रके 'वैय्यावृत्य' नामक चौथे शिक्षाबतके स्थानमें उमास्वातिके 'अतिथिसंविभाग' व्रतको ही रखना पसंद किया है । और उसका लक्षण भी दानार्थ-प्रतिपादक किया है । यथाः
व्रतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण । । ' द्रव्यविशेपवितरणं दाविशेषस्य फलविशेपाय ॥५-४१॥
'देशावकाशिक' व्रतका वर्णन करते हुए, टीका, पं० आशाधरजीने लिखा है कि, शिक्षाकी प्रधानता और परिमितकाल-भावितपनेकी चजहसे इस व्रतको शिक्षाक्तत्वकी प्राप्ति है। यह दिग्वतके समान यावजीविक नहीं होता। परन्तु तत्वार्थसूत्र आदिकमें जो इसे गुणव्रत माना सो वहाँ इसका लक्षण दिग्वतको संक्षिप्त करने मात्र विवक्षित मालूम होता है। साथ ही, वहाँ इसे दूसरे गुणजतादिकोंका संक्षेप करनेके लिये उपलक्षण रूपसे प्रतिपादित समझना चाहिये । अन्यथा, दूसरे व्रतोंके संक्षेपको यदि अलग अलग व्रत कर दिया जाता तो व्रतोंकी 'बारह' संख्यामें विरोध 'आता । यथाः___ "शिक्षाक्तत्वं चास्य शिक्षाप्रधानत्वात्परिमितकालभावित्वाचोच्यते । न खल्वेतदिग्वतवद्यावज्जीविकमपीष्यति । यत्तु तत्वा_दौ गुणवतत्वमस्य श्रूयते तदिग्वतसंक्षेपणलक्षणत्वमात्रस्येव