________________
मानते हुए भी,
सी बातोंका खास
न किसी. विशेष
गुणयत और शिक्षाबत
४७ इस लिये 'सुखावबोध' नामके जिस हेतुका प्रयोग किया गया है वह कुछ कार्यसाधक मालूम नहीं होता। सूत्रकार जैसे विद्वानोंसे ऐसी बड़ी गलती कभी नहीं हो सकती कि वे, जानते वृझते और मानते हुए भी, खामख्वाह एक जातिके व्रतको दूसरी जातिके व्रतोंमें शामिल कर दें, उन्हें ऐसी बातोंका खास खयाल रहता है और इसी लिये उन्होंने अपने सूत्रमें अनेक बातोंको, किसी न किसी. विशेषताके प्रतिपादनार्थ, अलग अलग विभक्तियोंद्वारा दिखलानेकी चेष्टा भी की है। यहाँ क्रमनिर्देशसे ही गुणव्रत और शिक्षाबत अलग हो जाते हैं, इस लिये किसी विमक्तिद्वारा उन्हें अलग अलग. दिखलानेकी जरूरत नहीं पड़ी। हाँ, दिग्देशानर्थ दंडके बाद 'विरति' शब्द लगाकर इन तीनों व्रतोंकी एकजातीयता और दूसरे व्रतोंसे विभिन्नताको कुछ सूचित जरूर किया है, ऐसा मालूम होता है । यदि उमास्वातिको 'देशविरति' नामके व्रतका शिक्षाबत होना इष्ट होता तो कोई वजह नहीं थी कि वे उसका यथास्थान निर्देश न करते। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें भी, जिसे स्वयं उमास्वातिका बनाया हुआ भाष्य बतलाया जाता है, इस विषयका कोई स्पष्टीकरण नहीं है । यदि उमास्वातिने सुखावबोधके लिये ही (जो प्रायः सिद्ध नहीं है ) यह क्रमभंग किया होता और तत्वार्थाधिगमभाष्य स्वयं उन्हींका खोपज्ञ टीकाग्रंथ था तो वे उसमें अपनी इस बातका स्पष्टीकरण जरूर करते, ऐसा हृदय कहता है। परंतु वैसा नहीं पाया जाता और न उनकी इस सुखाववोधिनी वृत्तिका श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पीछेसे कुछ अनुकरण देखा जाता है । इस लिये, विना इस बातको स्वीकार किये कि उमास्वाति आचार्य 'देशविरति' नामके व्रतको गुणवत
और ' उपभोगपरिभोगपरिमाण' नामके व्रतको शिक्षाबत मानते थे, उक्त क्रममंगके आरोपका समुचित समाधान नहीं बनता। मुझे तो ऐसा