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प्रकाशकके दो शब्द जैन समाजके सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी लेखनीसे प्रकट हुआ यह अन्य जैन साहित्यमें एक बिलकुल ही नई चीज़ है-मुख्तार साहबके गहरे अनुसंधान, विचार तथा परिश्रमका फल है। इसमें बड़ी खोजके साथ जैनाचार्योंके पारस्परिक शासनभेदको दिखलाते हुए, श्रावकोंके अष्ट मूलगुणों, पंच अणुव्रतो, तीन गुणवतों, चार शिक्षाव्रतों और रात्रिभोजनत्याग नामक व्रतपर अच्छा प्रकाश डाला गया है । साथ ही, जैनतीर्थंकरोंके शासनभेदका भी, उसके कारण सहित, कितनाही सप्रमाण दिग्दर्शन कराया गया है और उसमें मूलोत्तर गुणोंकी व्यवस्थाको भी खोला गया है। यह ग्रन्थ जैनशासनके मर्म, रहस्य अथवा उसकी वस्तुस्थितिको समझनेके लिए बड़ा ही उपयोगी है और एक प्रकारसे जिनवाणीके रहस्योद्घाटनकी कुंजी प्रस्तुत करता है। इससे विवेकजागृतिके साथ साथ, बहुतोंका जिनवाणी-विषयक भ्रम दूर होगा--गलतफहमी मिटेगी--विचार धारा पलटेगी, कदाग्रह नष्ट होगा और उन्हें जैनशास्त्रोंकी प्रकृतिका सच्चा बोध हो सकेगा;
और तब वे उनसे ठीक लाभ भी उठा सकेंगे । ग्रन्थ विद्वानों के पढ़ने तथा विचार करने योग्य है। प्रत्येक जैनीको इसे जरूर पढ़ना चाहिये और समाजमें इसका प्रचार करना चाहिये । मुख्तारजीका विचार दूसरे भी कितने ही विषयोंपर जैनाचार्योंके शासनभेदको दिखलानेका है। उसके लिखे जानेपर प्रन्थका दूसरा भाग प्रकट किया जायगा ।
प्रकाशक