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जैनाचार्योंका शासनभेद
इसलिये अहिंसाणुव्रत की प्रतिज्ञामें रात्रिभोजनका त्याग नहीं आता । उसके लिये जुदा ही नियमादिक करनेकी जरूरत होती है । इसी लिये गृहस्थों को रात्रिभोजनके त्यागका पृथक् उपदेश दिया गया है। कुछ आचार्यांने अहिंसाणुत्रतके वाद, कुछने पाँचों अणुव्रतोंके बाद, कुटने भोगोपभोगपरिमाण नामके गुणव्रतमें और कुछने अणुत्रतों के कथनसे भी पहले इसका वर्णन किया है । और अनेक आचार्योंने स्पष्ट तौरपर इसे छठा अणुव्रत ही करार दिया है जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है । अतः यह एक पृथक् व्रत जान पड़ता है और रक्त आलोकितपानभोजन नामकी भात्रनामें इसका अन्तर्भाव नहीं होता। हाँ, महाव्रतियोंके त्यागकी दृष्टिसे, जिसमें सब प्रकारकी हिंसाको छोड़ा जाता है और गोचरीके भी कुछ विशेष नियम हैं, आलोकितपानभोजन नामकी भावना में रात्रिभोजनके त्यागका समावेश जरूर हो सकता है । और संभवतः इसीपर लक्ष्य रखते हुए श्रीपूज्यपाद और अकलंकदेवने अपने अपने ग्रंथोंमें उक्त प्रकारके उत्तरका विधान किया जान पड़ता है । ऐसा मालूम होता है कि विकल्पको उठाकर उसका उत्तर देते समय उनकी दृष्टि अहिंसाणुत्रतके स्वरूपपर नहीं पहुँची -उनके सामने उस समय अहिंसा महात्रतके स्वरूपका नक्शा और मुनियोंके चरित्रका चित्र ही रहा है, और इस लिये, उन्होंने उसीके ध्यानमें रात्रिभोजनविरमण नामके छठे अणुव्रतको अहिंसाव्रतकी आलोकितपानभोजन नामकी भावना में अन्तर्भूत कर दिया है । मेरा यह खयाल और भी दृढ होता है जब मैं राजवार्तिकमें उन विशेष विकल्पोंके उत्तर- प्रत्युत्तरोंको देखता हूँ जो आलोकितपानभोजनके सम्बन्धमें उठाए गये हैं; वे सब मुनियोंसे ही सम्बंध रखते हैं । जैसे कि, दीपादिकके प्रकाशमें देखभालकर रात्रिको भोजनपानकरनेमें जो आरंभ दोप होता है उसे यदि परकृतप्रदीपादि हेतुसे हटाया भी जाय तो भी भोजनके