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________________ Jivu Bai Jain Temple Granth Bhandar मंगल जिन मुषषिरी दिव्य धुनि मय जिनवाणी । मंगल श्रावक नित्य सम कीती मंगल जानी ॥ . मंगल जुः नथ इह जानियो वकता मुषि मंगल सदा । .. . श्रोता जु सुरणे निज गुण गुणें मंगल करि तिनकौं सदा ॥ ६५ ॥ ....: दोहा-किसन सिंघ कवि वीनती, जिन श्रुत गुरु सौं एह । मंगल निज तन सुपदलषि, मुक ही मोक्ष पद देह ।। ६६ ।।. .. : चौपई-जब लौं धर्म जिनेश्वर सार, जगत मांहि बरत सुखकार ।। तबलौं विसतर ज्यौ इह ग्रंथ भविजन सुर सिवदायक पंथ ।। १८६७ ॥ इति श्री क्रियाकोस भाषा मूल त्रेपन क्रिया नै आदि दे अर और ग्रंथा की साषि का मूल कथन उपर व्रत संपूर्ण ॥ मिती दुतिय आसोज कृष्ण सप्तमीरविबासरे संवत् १७६५ पच्याणवै सवाई जैपुर मध्ये ॥ लिखतं वंसतराम पाटणी सांगा साह का। उनतीस सिलोक की गिनती जांनिज्यो । ग्रंथ लिषाया चाहै सुनि चाहेमांनिल्यो ।। या :मै फेर न सार सही तुम जानिज्यो ।। सदगुरू के परसाद जु उत्तम ठानियो॥१॥ - - -
SR No.010254
Book TitleJaipur aur Nagpur ke Jain Granth Bhandar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherUniversity of Rajasthan
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationCatalogue
File Size7 MB
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