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Jain Granth Bhandar's In Jaipur & Nagaur
संगही कल्याणं सवगुरगजागं गोत्रपाटणी सुजसलिये । पूंजी जिनराय श्र रंगुरपायं नमें संकलि जिनदान दियं ॥ ४७ ॥ तसु सुत दुय रावं गुरु सुख देवं लघुरौ श्राणंद सिंघ सुरणों । सुखदेव सुनदन जिन पद वंदन थान मांन किसने सुमरणों ॥ किसने इह कीनी कथा नवीनी निज हित चीनी सुरपदकी । सुषदाय क्रिया भनि इह मनवचतंनि सुद्धय लें दुरगति रद की ॥ ४८ ॥ दोहा - मधुर राय वसंत को जांने संकल जिहांन प्रधान सुत की तनुज, किसनस्यंध मन मांन ॥ ४६ ॥
तसु
सुष लही ।
डिल्ल - पेत्र विपाकी कर्म उदै जव आइयो । निजपुर तजि के सांगानेर बसाइयो । तह जिन धर्म प्रसाद गमैं दिन सा घरमी जन सजन मांनदे हित गही ॥ ५० ॥ दोहा - इहि विचार मत प्रानियो, किया कथन विध सार | होइ चौपई बंधतो, सवजन को उपगार ॥ ५१ ॥
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Scribal remarks:
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सत्रह संवत चौरासीया सुभादौ मास वरपा रित स्वेत तिथि पून्यों रविवार है संति विषरि विधृतिनाम जोग कुंभ ससिस्यंघ की दिने समफुरत अतिसार है ।। - दुढाहर देस जांन वसे सांगानेर थांन जैस्यंघ सवाई महाराज नीति धार है । ताके राजसमं परिपूरण की इह कथा भव्यन के हिरदै फुलासदैन हार है ॥ ६१ ॥ इस चोवन पैंतीस इकतीसा मरहटा पांचसय पांचसयवीस ठाने है । सातसय वाणवैसु चौपई छबीस छप्प पघडीपैंतीस तेरा सोरठा बखाने है ।
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डिल्ल वहतरि नाराच आठ मीता दस कुडंलीया तीन छह तेईसा प्रमाने है । द्रुतं तविलंबित च्यारि ग्राठ है भुजंगी तीन त्रोटक त्रीभंगी नवछंद एते आने है ॥६२॥ छंद कहै इस ग्रंथ मभारि लिए गति जे उकतंचघराई । दोई हजार महिल विधाटि पिच्यासी यराह प्रमान करा ही जो न मिले तुक अक्षर मात तदापुनरुक्त न दोष ठराही । तो मुझ को लपि दीन प्रवीन हे सो मति मैं तुम पाय परा ही ॥ ६३ ॥ ग्रंथ लिये इह लेपक कोइ कहे मरजादसि लोक किती है । छंदनि के सब अक्षर जोररूपद्धति अंक जु संधि तिती है ॥ ते सव वर्ण बंतीस प्रमांरण सिलोकनिकी गिरगती जूड़ती है । दोय हजार परी नवर्स लपि ले फूनि सुद्ध मती है ॥ ६४ ॥ छप्प — मंगल
श्री
सिध
मंगल
सिवदायक ।
- मावु गुरु
'लायक ||
अरहंत प्राचारिण. उवझाय
मंगल