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जैनकथा रत्नकोप नाग आरमो. संबंध रसाल । म ॥१५॥ सर्व गाथा ॥४७॥श्लोक तथा गाथा ॥१६॥
॥दोहा॥ ॥ याव्या कूपनी मेखला, दिलनर दंपती दोय ॥ जे तिण अवसरें नी पन्युं, ते निमुणो सदु कोय ॥ १ ॥ प्रवहण कोइ परदेश, थाव्युं तेणें छीप ॥ जल इंधणने तखां, वंदर जाणी समीप ॥ २ ॥ याव्या जलने जोवतां, कूपकंठ नर के॥जल बाकर्षण दोरिका, मूके हर्प धरे ॥३॥ धनदें दोरि ग्रही तदा, वोल्यो एम वचन ॥ कूपथकी काढो मुने, महोटा तुमें माहाजन ॥ ४ ॥ तिणे जइ निजपतिने कयुं, देवत्तने धाम ॥ आवो स्वामि उतावला, वे उपकारचं काम ॥ ५ ॥ ते आव्यो दोडी तिहां, मांची वांधी दोर ॥ धनद कुमरने काढीयो, देवदत्त करि जोर ॥ ६ ॥ सार्थवाह दोगे सखर, सुंदर वेप अवल ॥रे सजान तुं कोण ने, निर्मल रूप नवल ॥ ७॥ केम पडियो ए कूपमां, धनद कहे एक वार ॥ प्राण प्रिया पण माहरी, कूपमांहे निर्धार ॥ ॥ अवर वस्तु पण वे घणी, कूपमध्ये महाराज काढीने कहेगुं पड़ी, वात सकल मुज आज ॥ ए॥
॥ ढाल अढारमी॥ ॥ दुं दासी राम तुमारी ॥ ए देशी ॥ देवदत्त कहे सुविचारी, तुमे काढो परपी प्यारी ॥ सवि वस्तु निकासी सारी, ते दीठी सुंदर नारी रे॥१॥ नवि का लोन न करजो॥ लोन न कर जोजी॥ ए बांकपी॥ यंते ए फुःख दाइ, माया विपवेल सहा ॥ तृमा तरुणीनो नाइ, रघु एहथी जग लपटाइरे॥न० ॥ २॥ पूढे सार्थवाह तिवार, कहो तुमचो हवे अधिकार ॥ दोय ना ह रमणी निरधार, केम पडियां कूप मजार रे ॥ ज० ॥३॥ए नरत तो हुँ वासी, लु जातें वणिक विलासी ॥ धन उपराजण उल्लासी, चल्यो हीप कटाह विमासी रे ॥ ॥ ४ ॥ देवयोगें प्रवहण नांग्यु, एक फलक करें मुज लाग्युं ॥ दंपती दोय पाम्यां ताग, साध्यु ए बंदर नाग्य रे ॥ नए ॥ ५॥ जल जोतां ए कूप दीठो, मनमांहे लाग्यो मीगे ॥ नारी पग तिहां लपट्यो, जोतां मनडो करी धीठो रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ नारी के. उजाइ थाइ, पडतुं महेल्थु में धाइ ॥ कूपमेखल ऊपर जाइ, पडियो हूं पुण्य सखाइरे ॥ ॥ ७ ॥ जलदेवीथा सुप्रसन्न, आप्यांअम वसन रतन्न । कहे प्रव हण वेसी जतन, तुमें जाजो पुरप रतन रे ॥ न० ॥ ॥ थम नाग्य