________________
.५४
जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. स्वामीजी॥धाश धरी हियडे घणीजी ॥ मुज तारशो ए विश्वास ॥ना०॥ झायिक समकितना धणी जी ॥ ॥ कहे केवली जेम मन मम ॥ ना० ॥ तेम कीजें निश्चल थई जी ॥ सोंपी सुतने निज साम्राज्य ॥ना०॥ अशनिघो दीक्षा ग्रही जी ॥ ॥ वति स्वयंप्रना बदु नारी संघात, चरण ग्रहे केवली कने जी॥पाले पावन पंचाचार ॥ मुनिजी ॥ चरण करण गुणे एकमने जी ॥ ए ॥ हवे वांदी नृप दोय विशे, निज निज नयरें थाविया जी ॥ करे देवपूजा गुरु जक्ति सुवे, सदु जन मनमा नाविया जी ॥ १० ॥ दिये दीन रवीने दान अलेखे, नक्ति करे जिनमंदिरें जी। पाले श्रावकनो श्राचार अशे, सुख विलसे वरमंदिरें जी ॥ ११ ॥ एक दिवस अमिततेज राय ॥राजाजी॥ उज्ज्वल एक जिनगृह करे जी॥ माहे स्थाप्या आदि जिणंद, ते दीठे चित्तडं ठरे जी॥ १२ ॥ नित्य नक्ति करे प्रनात ॥ राम् ॥ अष्टप्रकारी उज्ज्वल मनें जी ॥ कहे चैत्यवंदन कर जोडी ॥रा ॥ नाव नले उल्लसित मनें जी ॥१३॥ अथ चैत्यवंदन ॥ उप्पय ।। जय सामी निज देव, जय अतिशय गुणधारी ॥जय पारंगत परम रूप,थ विचल अविकारी ॥ जय अध्यात्म जावधर्म, अकलंक थमायी। ज्ञानकला पूरण धणी, प्रनुताई पाई ॥ परमातम प्रेमें नमुं ए, प्रह गमते सूर ॥थ मिततेज प्रनुध्यानथी, दिन दिन चढते नूर ॥ १ ॥ सिह निरंजन नाथ नाम, धाता पुरुपोत्तम ॥ बुध अलख शंकर सदा, पर ब्रह्मा सत्तम ॥ चिदा नंद चेतन कहो, वली यादि अनादि ॥ अव्यय पदय ने यरुज, प्रनु पूर्णानंदी ॥ एम अनेक नामें करी ए, तुम ध्यातां कल्याण ॥ राम कहे सुर घेनुथी,अधिक तुम्हारीधाए ॥॥अथ स्तवन॥ राग केदारो॥आवो मुझ मन धाम जिनजी॥ ॥नेदथी एम रह्या यलगा, केम सरे श्रम काम ॥ जिल ॥श्रा० ॥ ॥ १ ॥ सम धमारा तुमें न मानो, हाथ न जालो दाम ॥ नेह नजरें न कोई निरखो, वीतराग तुमनाम ॥ जि॥या०॥ २ ॥ हूं सरागी राग तोरे, मोहीयो गुणग्राम ॥ कोइ हरि हर वन माने, कोइ ने मन राम ॥ जि ॥ था० ॥ ३ ॥ तुंही तुंही तुंही तुंही, जाप जपतां थाम के गुजरागें तस्खा एम, कहुँ केता स्वामि ॥ जि० ॥धा०॥ ४ ॥ लहे सरागी नावथी. वीतरागता परिणाम॥तेहनें शी खोट जस शिर, तुंही बातमराम ॥जि०॥धा॥५॥ इति स्तवनं ॥ एम स्तवतां केते काल ॥ मुनि जी॥
।
।
: