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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
१३ ॥ धडहडे धरणि नीशान तव गडगडे, नूर रणतूर ते सवल वाजे ॥ शब्द कालह तथा प्रतिहि वीहामणा, गुहिर वैताढ्यना कुहर गाजे ॥ जो० ॥ १४ ॥ सैन्य यणीयें मव्यां लोह तब उबल्यां, जाट नट कोटि जट दपट दीनी ॥ लटपटी याविया चटपटीमांहे ते, रुधिरकर्दम मही घोर कीनी ॥ जो० ॥ १५ ॥ युद्ध विद्याधरा साथ वाजे सहिं, होंश पूरी वढे सैन्य शूरा ॥ स्वामी गयवर चढ्या शिर वकारे जला, माहरा वीर वेहु परक पूरा || जो० ॥ १६ ॥ वहुत विद्यावलें रूप कीधां घणां, इष्ट वैतान सर्पादि जाए || फोज पाठी हवी त्रिष्टष्ट अचल तणी, यावि स्वामीलगें ते जाली ॥ जो० ॥ १७ ॥ जागीयुं सैन्य निज देखि कोपें चढ्यो, था प रथ वेसीने धींग धायो ॥ पाउल कोटि नट कबले यावता, मानुं महेराल ए पूर याव्यो || जो ॥ १८ ॥ पग नयी जोर धान्युं सर्वे कायरा, हाक वीरो तणी ताम वागी ॥ गया गया खलहल्यां, देव दानव मल्या, खाज सवली हलां प्राय लागी ॥ जो० ॥ १९॥ रथ चढी यावी साहामो प्रयो प्रतिहरि, दोय रिपु सामुहा यावि मलिया ॥ दल वेडु पासें देखे तमासो तिहां, धन्य राणीजाया एह वलीया ॥ जो० ॥ २० ॥ दिव्य हथियार धारया तदा मेघ जिम, प्रतिहरि घनथकी ताम वूठी ॥ राय परजापति सुत नवल लीलथी, शस्त्र बेदी पड़ी ते अपूवी || जो० ॥ २१ ॥ चक्र समसुं तदा राय हयग्रीवजी, समर रे समर जे इष्ट ताहरे || जय ' दिखाडे किश्यो लोहना खंमनो, चक्र मम मूक वलतुं वकारे ॥ जो० ॥ २२ ॥ मूकियुं चक्र तेणें मान मनमां घरी कोपथी हाथ उपरें नवाडी | यावि त्रिष्टष्ट नी पास ते पुण्यथी, तिहां रचुं तुंवयी व ताडी ॥ जो० ॥ २३ ॥ चक्र ले करें कहे हयग्रीवनें, मान्य मुऊ याप जा तुऊ मूक्यो | ते कहे मरण नतु बेरी नमवाथकी, नवि नमुं प्रतिहरि एम कूको । जो० ॥२४॥ मूकीयुं चक्र शिर बेदी याव्युं करें, प्रतिहरि नरकनी वाट लीधी ॥ प्रथम हरि एम उदघोषणा सुर करे, त्रिष्टष्ट शिर कुसुमनी वृष्टि कीधी ॥ जो० ॥ २५ ॥ साधियों पत्रिहुं जरत भूमी तथा सर्व नर असुरनां वृंद सायें ॥ वाम तुज व्यय कोटि शिल नझरी, पट्ट निपेके कीनो सनायें | जो० ॥ २६ ॥ राज्य धरा नौगवे पुण्य बलीया थकी, ढाल चोथी कही खंम वीजे ॥ राग च्याशावरी जाति कहखे सही, राम कहे पुष्यथी को न सीके || लो० ॥ २७॥
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