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३७ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. चर्म से हरिनुं गुणवास, मोकलावे प्रतिहरिनी पास ॥ दि० ॥ १५ ॥ ! कहेवाडे माने मुफ पाड, सिंहतणां में पूखां लाड ॥ व ॥ जम्य वेठो हवे कूर ने नात, मुफ सान्निध्य म धरिश प्रतांत ॥ दि० ॥ १६ ॥ नि सुणी वैरीनां वयण कठोर, मनमांहे उहवाणो जोर ॥ व ॥ अंतर य नल प्रज्वलियो पूर, चिंते हवा ते वेदु शूर ॥ दि० ॥ १७ ॥ पुण्यदशा । जस चढती होय, झुं करे वैरी साहामुं जोय ॥ व ॥ श्राव्यो पोतनपु रनी हजूर, हर्षे वाज्यां तव जय नूर ॥ दि० ॥ १७ ॥ हवे नवि सुपजो - अधिकार, बागल वधशे वहु विस्तार ॥व ॥वीजे खमें त्रीजी ढाल, विरुन क्रोध वडो चांमाल ॥ दि० ॥१ए । सर्वगाथा ॥ ७७ ॥ श्लोक ॥ ४॥
॥दोहा॥ ॥ वाजिग्रीव इण अवसरें, स्वयंप्रना सुकुमार ॥ रमणी निरुपम सां. ! नली, वाध्यो विषयजंजाल ॥ १ ॥ मानिनी ए मोहनलता, मनमानी सुखदाय ॥ ज्वलननगी कहे तुज सुता, मुफ सीताव परणाय ॥ २ ॥ सुखिणी थाशे तुऊ सुता, वली पामिश बदु मान ॥ रस रहेशे आपण अधिक, ए वाते म करिश कान ॥३॥ यत्किंचित् उत्तर कही, वाल्यो चर। राजन ॥ पोतन पुर त्रिष्टष्ठने, परणावी प्रबन्न ॥४॥ वात नली अथवा धुरी, .. पटकणे दुई जेह ॥ पसरे पणिहारीमुखें, ढांकी न रहे तेह ॥ ५ ॥ यतः ॥ ' खंझण पीसण जलवहण, वाहर नूमि गयांद ॥ देवजुवण पप्पड वगण, रसगोती महिलांह ॥ १ ॥ पण वधशे ए वातथी, पागल बदु संताप ॥ घश्वग्रीव मागी हती,पण परणावी नहिं वाप ॥६॥सेवक मुख प्रतिहार सुणी, परणावी सा वाल॥त्रिप्टष्ठनपी सामीजइ,कतीअंतर जाल ॥७॥विषयथकी वाध्यो घणो, नारीतणे निमित्त । कोप चढयो जाणे नहिं,कोण शत्रु कुण मित्र॥ ७ ॥ जगमां नारी सम नहिं, अवर को जंजाल ॥ विपय विलुहां मानवी, पडियां मोहने जाल ए| समकाव्यो समजे नहिं, मंत्रीश्वर वय - रोह ॥ वली अज्ञाने आवस्यो, नवि निरखे नयणेह ॥ १० ॥ यमुक्तं ॥ एकं हि चकुरमलं सहजोविवेक, स्तभिरेव सह संवसतिर्वितीयम् ॥ एतद्द्यं । नुवि न यस्य स तत्त्वतोऽध, स्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥ २॥ यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शिदा तस्य करोति किम् ॥ लोचनान्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥३॥
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