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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
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नक्ति विशाल रे ॥० ॥ २५॥ प्रभु यागल नाचे ते सुरवर, थेइ थेइ शब्द कहंत रे ॥ तार तार करुणारससागर, जगतवत्सल जयवंत रे ॥ ज० ॥ २६ ॥ तुहि तत्त्व परमहितकारी, परमनक्तप्रतिपाल रे || देव निररंजन निरुपा धिक गुण, जय जय देव दयाल रे ॥ ज० ॥ २७ ॥ लोक सदू देखी चित हरख्यां धन जिनशासन एह रे ॥ जिहां एहवा प्रजुने दरवारें, नाचे देव सनेह रे ॥ ॥ २८ ॥ देव कहे चिंतामणि सुलहो, कल्पडुम सुरकुंन रे ॥ पल ए जैनधर्म प्रति लहो, लही सेवो निर्देन रे ॥ ज० ॥ २७ ॥ ये ए गुर शिवपद सुख शाश्वत, सुलि एमकेइ नविवृंद रे ॥ वृज्या धर्म नजी जिनव रनो, खाणी मन थानंद रे ॥॥ ३० ॥ करी प्रभावना शासन केरी, सुर पहोतो निज नाम रे || इंड्ने कहे जे तुमो परकाश्यो, ते नर गुणमलि धाम रे ॥ ॥ ३१ ॥ इणी परें पोपधत्रत व्याराधो, नवि चालीजें चित्त रे ॥ तो सुर शिवपद सुख पामीजें, कहे जगगुरु सुपवित्त रे ॥०॥३२॥ उद्वे
में चालीशमी ढालें, पोपवत्रत अधिकार रे ॥ रामविजय कहे एम व्रत निर्मल, पालतां नवनिस्तार रे ॥ ॥ ३३ ॥ इति एकादश पौषभवते जिनचं कथानकम् ॥११॥ सर्वगाथा ॥१५७८ ॥ श्लोक तथागाथा मली ॥ ७६ ॥ ॥ अथ द्वादश व्यतितिसंविभागत्रत संबंधः ॥ ॥ दोहा ॥
|| वे अतिथि संविभागनुं, द्वादश व्रत अनिराम || शिक्षाव्रत चोयुं सही कहे शांति भगवान ॥ १ ॥ लौकिक तिथि पर्वादिनो, जिणें वरज्यो व्यव हार ॥ जोजन का यावियो, यतिथि कहियें सार ॥२॥ उक्तं च ॥ तिथि पर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना ॥ अतिथि तं विजानीयावेपमन्यागतं विशुः ॥ १ ॥ पूर्वदोहा ॥ साधुयतिथि को श्राद्धने, तस निरवद्य श्राहार ॥ संविभाग कीजें जलो, इण व्रतें लहे नवपार ॥३॥ प्रथम यतिने ग्रापीने, पढ़ें बावरे याप ॥ मुनि न मले तो पण करे, दिशालोक गतपाप ॥ ४ ॥ यकं ॥ पढमं जई दाउरा, अप्पणा पणमिण पारेई || यस सु विडिया, नुजेश् य कय दिसालोई ॥ २ ॥ श्रन्यत्राप्युक्तं ॥ [श्रद्न्यः प्रथ मं निवेद्य सकलं संत्साधुवर्गाय च प्राप्ताय प्रविभागतः शुचिधिया दत्वा यथाशक्तितः ॥ देशात सधर्मचारिभिरलं, सार्धं च काले स्वयं, मुंजीत सुजाजनं गृहवतां पुष्पं जिनेवितम् ॥ ३ ॥ पूर्वदोहा ॥ पंच व्यतिचार
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