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श्री शांतिनाथनो रास खंग हो.
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दोष ॥ जक्ति ही ए दशमो सही, श्रावक ए च्यादरवा नहिं ॥१॥ इति सामा किद्वात्रिंशदोष स्वरूपं ॥ काव्यं ॥ वत्तीस दोसे हिं विशुद्धि मेथं, करित सामाइय मप्प मत्तो ॥ निचं नरो जो निस दीस कालं,वरित तं मुत्तिरमा कमेणं ॥ १ ॥ ॥ दोहो ॥ ए व्रत ऊपर जिन कहे, सिंहश्रावक यवदात ॥ ज विक जीव सह सांगले, करि निजमन एकांत ॥ १ || ढाल || स वाइ गुरु वाहनी परें तारे ॥ ए देशी ॥ नरतें रमणीय इस नाम, पुर सुंदर शोना गम, वहु जंतुनो विश्राम ॥ १ ॥ जिणंदराय देशना देई तारे, नव जलनिधि पार उतारे || जि० ॥ ए यांकणी || तिहां हेमांगद खनि धान, राजा बहु बुद्धिनिधान, सुंदर तन शोने वान || जि० ॥ २ ॥ हे मश्री तेहने राणी, रूपें जीती इंझणी, वली लावण्यगुणमणि खाणी || जि० ॥ ३ ॥ श्रावक जिनदेव विचारी, जिनदासी तस घर नारी, शी लादि गुणें करि सारी ॥ जि० ॥ ४ ॥ सिंह नामें हो थंगज सोहे, रूपें साजन मन मोहे, कढ़िये ते न रहे कोहें ॥ जि० ॥ ५ ॥ जीवाऽजीवा दिक जाए, समजु सबलो गुणखाण, मावित्रने जीवनप्राण ॥ जि० ॥ ६ ॥ बिंदु टंक यावश्यककारी, सुधो सामायिकधारी, रूडो श्रावक याचारी ॥ नि० ॥ ७ ॥ इक दिन सारथ संघातें, चाल्यो व्यापारने हेतें, सिंह लइ करियाएं खतं ॥ जि० ॥ G ॥ साथ उतस्त्रो घटवीमांहे, तदिनीतट जोड़ उत्साहें, जीधुं सामायिक सिंह शार्हे ॥ नि० ॥ ए ॥ सचलो प्रारंभ निवारी, मुनिनी परें समताधारी, करि मन वच तन एक तारी ॥ जि० ॥ १० ॥ तटिनी जल शीतल वासें, बहु कडे मशकनी राों को धूम बहु तव त्रास ॥ जि० ॥ ११ ॥ रह्यो सिंह यचल गुण गेह, सहे मशकपरीसह देह, न चजे मेरु जिम तेह || जि० ॥ १२ ॥ तुमशक समूहें विंटालो, यावी मलियो तव टालो, ध्यान दीपक नवि जवाणो ॥ जि० ॥ १३ ॥ त्वच नेदीने मुख मांहे घाली, पीये रुधिर ते मश कनी थाली, सिंह काया न संभाली ॥ जि० ॥ १४ ॥ जाऐ ए पुनन सार व्रत पालीजें निर्धार, ए विष्णु जम्यो बहु संसार || जि० ॥ १५ ॥ कोइनो नहिं तु तु कोई, मत रहे तन उपर मोही, रखे जातो ए व्रत खोइ ॥ ज० ॥ १६ ॥ निश्रत परिणामे रहियो, परिसह उत्कट तेों सहियो, पदवी सिंदो जन कहियो ॥ जि० ॥ १७ ॥ घायोि
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