________________
३GG
जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
"
नहिं उतारुं, श्यो करो हो सोर ॥ क० ॥२३॥ राग खाणी तेह ताली, फरि न वोल्वो वोल ॥ कामिनीनो प्रेम गाढो, रंग रातो चोल ॥ क० ॥ २४ ॥ एक दिवस धाड यावी, बोलती मुख मार ॥ कर्मना संयोगहूंती, विप्र ने घरवार || क० ॥ २५ ॥ कतरे नहीं नारी केरां, भूषण तेणी वार ॥ बेदियां तस यंग सुंदर, खड्ग तीखी धार ॥ क० ॥ २६ ॥ वलवले. ते नारी कभी, करे लोहीधार ॥ चरण वेदे भूमि ऊपर पडी ते निरधार ॥ ०॥ १७॥ प्राचां एमवे उदयें, नहिं को राखणहार ॥ राखो राखो मुखें नांखे, नित्यमंदिता नारि ॥ क० ॥ २८ ॥ कंथ तेहनो नासी पेठो, कोइ नाव्यं पास || रौड़ध्यानें ते मरिने, गई नरकावास ॥ क० ॥ २७ ॥ एम जे परिभोग उपरें, राखे माया नूरि ॥ तेहनी एह गति होवे, बांगो माया दूर ॥ ० ॥३०॥ उठे खमें ए उत्रीशमी, ढाल नांखी सार || शांतिप्रजुनी देशनाथी, पामियें नवपार ॥ क० ॥ ३१ ॥ इति सप्तमभोगोपभोगो परि जितशत्रु नित्यमं मिताकथानके ॥ ३२ ॥ सर्व० ॥ १४१० ॥ श्लो० ॥ ६६ ॥ ॥ अथाष्टम अनर्थदंम विरमणव्रत संबंधः ॥ ॥ दोहा ॥
॥ हवे त्रीजुं गुणव्रत प्रभु, कहे शांति जिनराज ॥ अनर्थदं विरमण करो, जिम सिके यातमकाज ॥ १ ॥ अपध्यान पहेलुं वली, पाप तलो उपदेश || हिंस्र प्रदान त्रीजुं कयुं, दुःखदायी सुविशेष ॥ २ ॥ तेम याच रण प्रमादनुं, चोथो नेद वखाण || चार नेद एम नीपजे, श्रोता सुणो सु जाण ॥ ३ ॥ पंच यतिचार एहना, प्रथम कह्यो कंदर्प ॥ रागें दास्या दिक वचन, बोले जे घरी दर्प ॥ ४॥ कौकुचपएं निवारीयें, मुख च नेत्र विकार || हास्य जनक विटनी परें, ते वीजो अवधार ॥ ५ ॥ ए प्रमा दथी नीपजे, मुखरपणुं तेम टाल ॥ संब-जापी घणो, जेम तेम बोले यात ॥६॥ महानर्थनुं हेतु ए, पहेलो पाप उपदेश ॥ ए बर्जे जे मानवी, न लहे तेह किलेश ॥ ७ ॥ यक्तं ॥ बहूनां समवाये हि, सिद्धे कार्ये समं फलम् ॥ यदि कार्यविपत्तिः स्या, न्मुखरस्तत्र वाध्यते ॥ १ ॥ अन्यत्र ॥ श्रविद्या लिय पहावं, पर चित्तमरिककण जं नणियं ॥ किंपावयरतत्तोवि, दुऊ ग्रन्नपि लोगंमि ॥ २ ॥ पूर्वदाल ॥ वली चतुर्थ यधिकरणनो, हल कुवार शकटादि ॥ सद्ध करी मेहने नहिं, तेम नवि