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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
व्यापार || लालच मनमां प्रति घणी तो ॥ ज० ॥ जेम तेम धन मेलुं सार ॥ ३ ॥ पट महिना त्यां प्रतिक्रम्या तो ॥ ज० ॥ वमणा यया रे दिनार ॥ लानें लोन वध्यो घणो तो ॥ ज० ॥ मनमांहि करे रे विचार ॥ ४ ॥ जेइ करियाएं सामटुं तो ॥ ज० ॥ सुजस चल्यो तेइ साथ ॥ || तिलकपुरें ते यावियो तो ॥ ज० ॥ रलवाने बहुली रे याथ ॥ ५ ॥ मन चिंतित नवि पामीयो तो ॥ ज० ॥ लान तिहां पण तेह ॥ चाहए माल जरी चढ्यो तो ॥ ज० ॥ रत्नदीपें गुण गेह ॥ ६ ॥ नेट ल नृपने मल्यो तो ॥ ज० ॥ दाल अर्ध मेल्युं राय ॥ खादर मान दीधुं घणुं तो ॥ ज० ॥ की महा सुपसाय ॥ ७ ॥ लान घणो तिहांकणे थयो तो ॥ ज० ॥ फली मनोरथमाल ॥ निजपुरने जावा नली तो ॥ ज० ॥ सुलस ययो नजमाल ॥ ८ ॥ तेइ लक्ष्मीने चालीयो तो ॥ ज० ॥ वाह वेसी कुमार ॥ जर दरीये नांग्युं तदा तो ॥ ज० ॥ यहो हो कर्म विकार ॥ ए ॥ मन चिंते बहु जीवडो तो ॥ ० ॥ उदय वडो वलवान | कोडी उपाय करे कोई तो ॥ ज० ॥ फले कृतकर्म निदान ॥ १० ॥ श्रायु जोरावर सुलसनुं तो ॥ ज० ॥ चढीयुं रे फलक हाथ ॥ पंचम दिवसें पामीयो तो ॥ ज० ॥ किहांएक तीर अनाथ ॥ ११ ॥ वन देखी कदली तणां तो ॥ ज० ॥ कखो तस फलयी याहार ॥ वि शाम्यो जइ तरुतलें तो ॥ ज० ॥ मनमांहि घरे रे विचार ॥ १२ ॥ कष्ट स ह्यां में यति घणां तो ॥ ज० ॥ मेली ऋषि थपार ॥ पण मुऊ हाथ रही नही तो ॥ ज० ॥ कर्म कठिन निर्धार ॥ १३ ॥ अथवा देव उल्लंधीने तो ॥ ज० ॥ कीजें क्रिया जग जेह ॥ न फले सरजन चातकें तो ॥ ज० ॥ यतुं गले नीसरे तेह ॥ १४ ॥ यक्तं ॥ दैवमुध्य यत्कार्य, क्रियते फल वन्न तत् ॥ सरोंचात केनातं, गलरंध्रेण निर्गतम् ॥ १ ॥ पूर्वढाल ॥ तो पण में नवि बांडुं तो ॥ ज० ॥ साहस सुखनुं रे हेत || वाहला वंधवनी परें तो ॥ ज० ॥ कढ़िय ए बेह न देत ॥ १५ ॥ सुलस विचारी चित्तमां तो ॥ ज० ॥ प्रागल चाल्यो ए जाम ॥ पंखी समूहें चुंयीयुं तो ॥ ज० ॥ शब एक दीतुं रे ताम ॥ १६ ॥ ते नर शववसनांचलें तो ॥ ज० ॥ वांधी रे दीवी गांव || ते सुलसें ठोडी जड़ तो ॥ ज० ॥ लीधां पण रचण व कि ॥ १७ ॥ दधुं जेवुं नहिं तो ॥ ज० ॥ एह प्रतिज्ञा रे मुऊ ॥