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३६७ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
॥ ढालगणत्रीशमी ॥ पूरचे सुकत न में कीयो ॥ ए देशी ॥ अक्का कहे उतावली, आवि ते सुलसनी पास ॥ तुमें नूमि देता ऊतरो, जे कारिज रे उपर आवास ॥ १ ॥ धिक् धिक् उर्जन प्रीतडी रे ॥ जे आपे रे बटकीने बेह ॥ रंग कुसुंन तो जिस्यो, जेम न टके रे जग तारनो त्रेह ॥ धि ॥ २ ॥ मनमांहि कुंवर चिंतवे, युं हशे एहने काज ॥ सोल वरसमांहि एहवं, नवि सुपीयुं रे संजलाव्युं ते आज ॥ धि० ॥ ३ ॥ दासी कहे तव आवीने, झुं रह्यो मूढ विमासि ॥ निर्लज थश्ने केम रह्यो, नहीं ताहरे रे कोडी एक पास ॥ धि० ॥ ४ ॥ आथ विना आदर नहिं, मनमा विचारी जोय ॥ ए वेश्या मंदिर नवि शूनां, प्रीति सूखी रे इहां कण नधि होय ॥धि ॥ ५॥ सुलस निज मंदिर जपणी, निसखो न लहे माग ॥ मन खेद पामे अति घणो, एह देखी रे उपजे वैराग्य ॥ धि० ॥ ६ ॥ अषुसार मारग समरतो, आव्यो निजगृह पास ॥ चिटुं पासें पड़ी युं जीर्ण ते, गृह देखी रे थयो मन नदास ॥ धि० ॥ ७ ॥ बगेह सवि उखडी गश्, नलियां तणी नही शुदिनांगे कपाटे उइंस जिस्यो, तेह देखी रे नूली गयो बुद्धि ॥ धिम् ॥ ७ ॥ पूबीयुं पाडोशी जणी, घर स्वामी, झुं नाम ॥ ते कहे ताहरे झुं अजे, ए नामर्नु रे पूब्यानुं काम ॥ वि० ॥ ए ॥ ते कहे सहेजें पूबीयुं, ए कषनदत्तनुं गेह ।। आम अ वस्था का थर,जीवे डे के वली मूतेह ॥ धि० ॥ १७ ॥ ते कहे शेव ने तस प्रिया, वेदु पदुतलां परलोक ॥ घर पडद्यं संजाल्या विना, एम निसु पी रे मनमां धरे शोक ॥ धि० ॥ ११ ॥ धिक् व्यसन मुक वेश्यात[, हुँ थयो मूढ गमार ॥ मृत पितर में नवि जाणियां, नवि गणीयो रे अपयश अपकार ॥ धि० ॥ १५ ॥ धन धूलमांहे मेलीयु, सेवियां सात व्यसन्न ॥ शुं काम में रुडं कह्यु,देखाईं रे हवे केम वदन्न ॥धि॥१३॥ घर जोइन पाटो बढ्यो, यावीयो जीर्णोद्यान ॥ खर ताड पत्रे तुरीकया, तेणें लखीया रे अदर धरि शान ॥ धिम् ॥ १४ ॥ सुलस श्रीजिनवर नमी, लखे जामिनीने लेख ॥ आल्हाद सहित उतावलो, तुं वांचे मृगन यणी विशेप ॥ धि० ॥ १५ ॥ हूँ आज गणिकायस्थकी, नीसरी याव्यो गेह ॥ मृत पितर निसुणी लाजियो, तुझ न मल्यो रे आव्यो