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- जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. रपति कोप्यो वसुदत्त उपरें रे, मूकाव्यो जिनदत्त ॥ सऊन जिनशासन
आराधतां रे, सदु नपरें सम चित्त ॥ जि० ॥ ४ ॥ जिनदत्तनी परशंसा बदु वधी रे,धन्य धन्य ए जिनधर्म ॥ राजदुकमथी मंदिर आवियो रे, सदु साजन लयां शर्म ॥ जि० ॥ ४५ ॥ वात सुगीने कानस्लग्ग पारियो रे, जिनमती हर्ष न माय ॥ धन्य जिनशासननी रखवालिका रे, शासनदेवी तुं माय ॥ जि ॥ ४६॥ वात सुगी प्रियमित्रना मुखथकी रे, हरख्यो मनमांहि तेह ॥ परणी शुज मुहूरत सा सुंदरी रे, वाध्यो सबल सनेह ॥ . ॥ जि० ॥ ४ ॥ नोग्य विषयसुख जोगवीयां घणां रे, जिनमतीशुं मन रंग ॥ एक दिवस मुनि सुस्थितनी कनें रे, ल्ये संयम मन बरंग ॥ जि ॥ ४ ॥ चारित्र चोखू पाली चित्त चोखे बन्हे रे, थयां सुरवर सुरलोक ॥ शांतिप्रनु त्रीजा व्रत उपरें रे, कह्यो उपनय गतशोक ॥ जि० ॥ ४ए ॥ बहे खंमें रे ढाल पचवीशमी रे, रामविजय कही सार ॥ परधन परनारी थी वेगला रे, तेहना धन्य अवतार ॥ जि० ॥ ५० ॥ इति परश्व्यापहार विरमणे तृतीयं जिनदत्तकथानकं ॥३॥ सर्वगाथा एज॥ श्लो० ॥४॥ ॥अथ चतुर्थ मैथुनविरमणबत संबंधः ॥
॥ दोहा ॥ ॥ शांतिनाथ जिनवर कहे, सुण चक्रायुध नूप ॥ बालस अलगुं पर हरी, हवे अब्रह्म सरूप ॥ १ ॥ स्थूल सूक्ष्म ने कह्यु, मेथुन दोय प्र कार ॥ सूक्ष्म पित् कामथी, इंडियजनित विकार ॥२॥औदारिक वैकि य तथा, स्त्रीसाथें संजोग ॥ स्यूल कह्यो ते जिनवरें, मन वच काया योग ॥३॥ मैथुन विरमरूप ते, ब्रह्मचर्य दोय नेद ॥ सर्वदेशथी आगमें, नारस्युं प्रलु गतवेद ॥४॥ सर्वनारी परिहार जे, सर्वथकी ते ब्रह्म ॥ इत रदेशथी जाणीयें, ए सागारी धर्म ॥ ५ ॥
॥ ढाल ठवीशमी॥ ॥धादर जीव दमागुण आदर ॥ ए देशी ॥ शांतिप्रनु जिनराज पयं पे, ए व्रत निरतिचार जी ॥ पालंतां शिवपद पामीजें, सुणो हवे तास वि चार जी ॥ १ ॥म कर विपयविप याश ए विरुइ, कहे अचिरानो नंद जी ॥कर जोडी वर्षद सवि जावें, निसुणे धरि यानंद जी ॥ म० ॥ २ ॥ अपरगृहीता विधवा कन्या, दिक पर नहीं एम जाण जी ॥ तास गमन क