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३४६ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. ते माल ॥ शुं न करे धन लालची, धन सम नहिं रे जगमां कोई साल ॥ध ॥ १ ॥ रातें जइ सवि सामटुं, धन लाव्यो रे कपटी ते कु जात ॥ बल करी सरलने तरी, धनलोनी रे वंचे निजतात ॥ध ॥ २० ॥ साथें तेडी जर तेहने, पत्रे जोयु रे तेणें धनगण ॥ मां कांहिं दीसे नहीं, कपटीनां रे जुन एह विन्नाण ॥ध ॥ २१ ॥ हा हा उर्बुदि कहे, मुज वंची रे कोइ धूरत एह ॥ माल ले गयो माहरो, हैयुं कूटे रे हाथे तेह ॥ध ॥ २२ ॥ चिंते सुबुद्धि चित्तमा, एह धूरत रे एहनां सवि काम ॥ धुत्ता होय सुलदाणा, जगमाहे रे कहेवाये आम ॥ ५० ॥ २३ ॥ अम विदु विण को नवि लहे, एह स्थानक रे त्रीजो जन मात्र ॥ सही लीधु आवी एणे, एह जेहवो रे जग नहिं कमजात ॥ध . ॥॥ खम बरे वावीशमी, ढाल जांखी रे निसुणो गुणवंत ॥ इव्य समो नहिं को रिपु, जेणें मेहव्यु रे धन तेह सत्यवंत ॥ध० ॥ २५ ॥ ७१७ ॥३६
॥ दोहा ॥ ॥ कहे सुवुधिने पापीयो, तें सही लीधुं एह ॥ वीलु कोइ जाणे नहीं, तुं थयो सहि निःस्नेह ॥ १ ॥ कहे सुवुदि उर्चुदि सुण, मुज मन एह हूंत ॥ तो एकांतें ए ल , शाने तुफ सोपंत ॥ ॥ पण वंचक तुहिज सही, गमांहे शिरदार ॥ तुजविण दूजो को नहीं, ए निधान सेनार ॥ ३ ॥ प्रीति रही नहिं तेजने, कलहो लाग्यो जोर ॥ मांदोमांहि धन कारणे, वोले वयण कठोर ॥ ४ ॥ ऊगडंता वेदु धाविया, नरपतिने दरवार ॥ अरज करे ऊंचे स्वरें, उष्टवुदि तेणि वार ॥ ५ ॥
॥ ढाल त्रेवीशमी ।। ॥ देराणी जेवाणीना गोखला ॥ ए देशी ॥ राजन् अम वेदु पामीया, निधि कोश्क नाम उदार रे ॥ साहिव सुणो विनति ॥ ए करणी॥ तुम जयथी अमें वडतलें, लेइ संताडयुं निर्धार रे ॥ सा ॥ १ ॥ मुफ वंची एवं नियु, नहिं नूमिमांहे ते निधान रे ॥ सा ॥ तुज विण कुण मुज सांजले, फरियाद ए सुगुणनिधान रे ॥ सा० ॥ ॥ तुम वे ए नयरमां, वरते जो एहवो अन्याय रे ॥ सा० ॥ तो अम जेहवा अना थनी, कहोने हवे शी गति थाय रे ।। सा० ॥ ३ ॥ कहे राजन साखी हां, वे कोइ के कल्पितवात रे ॥ सा ॥ धन कारण वद्ध केलवे, एम