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३४२ जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. कर्मने नोग ॥ शां॥ १७ ॥ नूख तृषा लागी घणी, नृप चिंते हो एम॥ पाणीविना प्राण माहरां, इहां रहेको हो केम ॥ शां० ॥ १५ ॥ एहवे. एक मृग भावीयो, नूपतिनी पास ॥ पूरव नव तस सांजस्यो, नृप देखी। नन्नास ॥ शां० ॥ २ ॥ अदर लखी शिला उपरें, जणावे हो तेह ॥ देवलनामें हो ताहरो, सेवक गुणगेह ॥ शां० ॥ १ ॥ पार्तध्यानमांहे . मरी, थयो मृग वनमांहिं ॥ तुफ दी मुज सांजस्यो,पूरव नव हि ॥ ॥ २२ ॥ नीर देखाडयुं नृप नणी, जल पीधुं तेवार ॥ स्वस्थ थयो मन चिंतवे, मृगनो उपकार ॥ शां० ॥ २३ ॥ सेना पूवें संचरी, करी नरपति : केड ॥ वन वन जोतां नृप जणी,धावी तेण वेड ॥ शां० ॥ २४ ॥ सैन्य संघातें हो यावीयो, मृग लेई साथ ॥ दान अनय दई मूकीयो, पुरमांतू नाथ ॥ शां०॥ २५ ॥ फिरतां हो एक दिन आवीयो, मृग मम्मण दाट। पूरव मत्सरनावथी, नल्यो लें। लाति ॥ शां० ॥ २६॥ तातने कहे अप राधीयो, मृग मारीश बाज ॥ जनक कहे नवि कीजियें, एह सबल थ काज ॥ शां० ॥ २७ ॥ जीव कोइ हपीयें नहीं, वली एह विशेष ॥ नृप तिने मन मानियो, उपकारी रेख ॥शां॥॥ जनकनो वास्यो नवि रह्यो, . रोपें हो सोय ॥ मम्मए थयो विलखो घणुं, चाव्युं कहण न कोय ॥शां० । ॥श्णा यमदमें तेण अवसरे,वीनवीयो राय ॥ कर्म कघु ण मम्मों , नि। र्दय मन थाय ॥शां॥३०॥ राय कहे कुण साखीयो, कहे ते तस बाप ॥ नृप पूढे साचं कहे, आवी ते आप ॥ शां ॥३१॥ रीज्यो राय मनें घj, सत्यवादी जाण ॥ मान सहित बोलावीयो, घर ते गुणवाणि ॥ शां० ॥ ३ ॥ कहे तेडी यमपाशने, मम्मणने हो मार ॥ कहेतो हिंसा नवि करूं,नरपति अवधार ॥ शां॥ ३३ ॥ तुं हिंसा न करे किस्यु, जातें चांमाल ॥ ते कहे राजन् माहरे, नहिं हिंसा ढाल ॥ शां० ॥ ॥ ३४ ॥ कारण सुण तेहर्नु कहुँ, साहिब उजमाल ॥ हस्तिशीर्ष पुर ठे जलु, सोहे सुविशाल ॥ शां ॥ ३५ ॥ दमदंत नामें वाणीयो, सुणि वापी अनंत ॥ जिनवर पासें पादयो, संयम गुणवंत ॥ शां० ॥ ३६॥ तप अनावथी उपनी, तस लब्धि अनेक ॥ ते विचरंतो यावीयो, वनमां सुविवेक ॥ शां० ॥ ३७ ॥ रह्यो कानस्सग्ग स्मशानमां, तपीयो या गार ॥ जिण दीठे पावन होये, मानव अवतार ॥ शां० ॥ ३० ॥ण