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जैनकथा रत्नकोप नाग आग्मो. त्रिदु जण लाग्या केड ॥ वै ॥ चेतन चेतो हो चित्तमां, चित्तमा ए उशमनकुं फेड ॥ वै ॥ ७ ॥ खावंद माल अनंतके, अनंतके क्युं रहे होय दिलगीर ॥ वै ॥ आप दशा परगट करो, परगट करो ज्यु जांजे . नवनीर ॥ वै ॥ ए॥ साहिब दास ज्यु दुइ रह्यो, दुइ रह्यो इंख्यिके . आधीन ॥ वै ॥ पान करी मदमोह को, मदमोहको क्युं वेठो मिश कीन ॥ वै० ॥ १० ॥ यतः॥ आत्मनूपतिरयं चिरंतनः, पीतमोहमदि : राविमोहितः ॥ किंकरस्य मनसोपि किंकर, रिंडियैरदह किंकरीकतः ॥॥ पूर्वढाल ॥ चेतन तेरे राजमें, राजमें विषय करे क्युं जोर ।। वै० ॥ मित्र . दुश् याइ मिले, आइ मिले ए पांचोंही चोर ॥ वै० ॥ ११ ॥ क्षण सुख तोकू चखायकें, चखायके नाखेंगे ले दूर ॥ वै ॥ ए संसार अनादिको, अनादिको वहे विषयाके पूर ॥ वै ॥ १२ ॥ यउक्तमागमे ॥ दणमित्त सुरका वहुकाल उरका ॥ निंद निवारो हो मोहकी, मोहकी आलस अलगुं नाखि ॥ वै ॥ घटमें ज्ञानदीपक करो, दीपक करो सुमति उघाडो आंख ॥ वै ॥ १३ ॥ देशन सुणी गुरुराजकी, गुरुराजकी श्री गुणधर्म कुमार ॥ वै० ॥ मोह मट्यो ममता घटी, ममता घटी नागे विपय विकार ॥ वै ॥ १४ ॥ कनकवती निज नारीने, नारीने कहे लीजें अब दीख ॥ वै० ॥ संयम मारग आदरी, आदरी चलियें सजुरु शीख ॥ वै ॥ १५ ॥ सा कहे विषय निवारणी, निवारणी नवयौवन वय एह ॥ वै० ॥ सुख विलसो संसारनां, संसारनां दोहिलो ए नवल सने ह ॥ वै० ॥ १६ ॥ वृक्षपणामां वालहा, वालहा कीजें योग अन्यास ॥ वै० ॥ योगदशा यावे नहीं, आवे नहीं जिहां लगें विपयपिपास ॥ वैग ॥ १७ ॥ यउक्तं ॥ शैशवेऽज्यस्तविद्यानां, यौवने विषयैषिणाम् ॥ वार्धके मुनिवृत्तीनां, योगेनांते तनुत्यजाम् ॥ ३ ॥ पूर्वढाल ॥ कहे गुणधर्म ए धर्मनो, धर्मनो वृक्षपणे नहिं लाग ॥ वै ॥ जर्जर वय तनु वल घटे, बल घटे वाधे तृष्णा अताग ॥ वे० ॥ १७ ॥ यमुक्तं ॥ घायुग़लत्यागु न पापबुद्धि, गैतं वयो नो विपयानिनापः ॥ यत्नश्च नैपज्य विधौ न धर्म, स्वामिन्नहो मोहविडंवना मे ॥ ४ ॥ अंगं गलितं पलितं मुंमं, दशनविहीनं जातं तुंमम् ॥ तृशोयाति गृहीत्वा दम, तदपि न मुंचत्याशापिमम् ॥ ५ ॥ पूर्वढाल ॥ यौवनमां पण कोइने, कोइने थावे वैराग्यनो नाव ॥ वे ॥
अखाडो थांख ॥ ॥ मोह मध्यो बता निज नारीने, चलिये सजुर