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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
विस्तर नव योजन हितकाम ॥ शांतीश्वर राय, साध्या देश सदु ॥ ए यांकणी ॥ याव योजन उंचा निरधार, नवनिधि मंजूपा याकार ॥ शां० ॥ १ ॥ वैमूर्य मणिमय जटित कपाट, प्रगट्या निधि तेहनो सुपो घाट | शां० ॥ नैसर्पक पहेलो चित्त धार, पांशुक वीजो निधि सुखकार ॥ शां० ॥ २ ॥ पिंगल त्रीजुं सर्वरतन, चोयुं महापद्म पंचम मन्न ॥ शां० ॥ काल महाकाल मानव शंख, चार एवं नवनिहि गुख संख ॥ शां० ॥ ३ ॥ स्कंधावार ने नगरनिवेश, पहेला निधिमा सयल निवेश ॥ शां० ॥ धान्य बीजनी सवि संपत्ति, बीजे दुवे एहनी उत्पत्ति ॥ शां० ॥ ४ ॥ नर महिला हय हाथीना जाए, खानूपणविधि त्रीजे वखाण ॥ शां० ॥ चचद रत्न हुवे चोथे निधान, पांचमुं वस्त्र विविधनी खाए ॥ शां० ॥ ५ ॥ बहे कालत्रयनुं ज्ञान, महाकालें निसुणो मति मान् ॥ शां० ॥ सुवन रूप्प मणि लोह प्रवाल, एग्नो संभव सातमे नाल ॥ शां० ॥ ६ ॥ युद्धनीति सघना हथियार, योधता अष्टम यव धार ॥ शां० ॥ चनविध काव्य ने तुर्यनां अंग, नाट्य नाटक विधि नवमे रंग ॥ शां० ॥ ७ ॥ पल्योपम जीवित सुरवास, ए नवनिधिसंबंध व ल्लास ॥ शां० ॥ नवसहस निधि सुर कहे छाय, जय जय चक्री त्रिभु वनराय ॥ शां० ॥ ॥ मन माने तेम विलसो स्वामि, निधि घट तुम्हारे नाम ॥ शां० ॥ प्रगटयां पूरव पुण्य प्रमाण, व जगवतुम्हारी पट || शां० ॥ ए ॥ निधि उत्सव कीधो तेणी ववरसप्रजुना पुएध तपो नहिं पार | शां०॥ गंगा पूरव निष्कूट नाग, व्याप वशे को वडाग ॥ शां० ॥ १० ॥ साधी पट् खंग भारत वास, प्रभु वलियो मिस सुर नर दास ॥ शां० ॥ नहिं प्रजुने मन मोहविकार, उदय महाबल वान विचार ॥ शां० ॥ ११ ॥ विणु उदयें नवि जोगव्यां जाय, विष्णु नोकवियां मोह न थाय ॥ शां० ॥ यारों वरसें साथी हो देश, प्रभु यो वेि निज न यर उदेश ॥ शां० ॥ १२ ॥ दुइ हवियावर घर घर वा याव्यो सा aa जग विख्यात ॥ शां० ॥ बांध्यां तरियां तोरण बार, मुहोब बोले सह मंगल चार ॥ शां० ॥ १३ ॥ करि ज' वरी जयश्रेणिर यावे प्रभु गजपुर बहुसेन ॥ जके हो घाट, या में बजे क तेती हो जाए, प्रो जुजी वडो
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