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श्री शांतिनाथनो रास खंग वो.
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एम गर्न वाधे सुकत साधे, मात गुन दोहाला लहे ॥ वरदान दीजें लान लीजें, धर्म कीजें मन धसी ॥ मन जेह इवा कपजे ते, राय पूरे नसी ॥ ५ ॥ एम अनुक्रमें रे, मास यथा नव निर्मला || साठा दिन रे, सात थया उपरें जला ॥ जेठ मासनी रे, कुम्म त्रयोदशीने दिने । नरणी 5 रे, व्यो निशाकर शुन मनें ॥ ० ॥ शुन मनें सघलां लोक सुखीयां, नहीं जगमां को दुःखी ॥ यह यया गोचर ऊंच सवला, नीपनी सबली रुपी ॥ गुन लमवेला नजे मुहूरत, वाय अनुकूल वायते ॥ मध्यरात्रिसमयें वर्ण सोवन, कांतिपुंज विराजते ॥ ६ ॥ श्रारोगा रे, घचिरा माडीयें जाईयो || सुत नीरोग रे, त्रण जग हर्प उपाइयो ॥ थयो ज्योत रे, नारकीने पण सुख ययुं ॥ सचराचर रे, सहु जंतुनुं दुःख गयुं ॥ ० ॥ डुःख गयुं सवलुं ह प्रगट्यो, थवधिज्ञानें जाणीयो ॥ जिनजन्म केरो उपन कुमरी, हर्ष देई थालियो || प्राठ व गजदंत गिरिनी, कंदराथी श्रावि ए ॥ वली व्याव नं दन कूटती, घ्यावे धरि मन जाव ए ॥ ७ ॥ प्रत्येकें रे, रुचकगिरि निवा सिनी || यावे व यात रे, दिराहूंती ते सुवासिनी ॥ तेम चारे रे, रुचक विदिशिनी जालीयें ॥ द्वीप मध्यम रे, रुचकनी चार वखालियें ॥ नृ० ॥ वखालीयें उप्पन्न मलिने, हूइ सवली ते सुरी ॥ नवृं निर्मित एकयो जन, मित विमानें संचरी ॥ चार सायें महत्तरिका, चार सहस सामा निका ॥ पोड सहसा अंगरक्षक, साथ बेई सेनिका ॥ ८ ॥ तिहां श्रावी रे, जिनजननीने पाये नमी ॥ करें वैकिय रे, वात संवर्तक मन रमी | बरसावे रे, जलद वली प्राठे चली ॥ धरे दर्पण रे, प्रा जणी क लटणी ॥ ० ॥ घणे कलट घरी कलशा, रहे जिननी सामुही || कर श्राव जेई तालता, जांबे जिनमुखई रहीं ॥ श्रात चामर घरे चतुरा. चार तेम दवीधरा ॥ स्वाविधानादिक करे बली. चार देवी जाउग || || एम सह मली रे, सूतीकर्म करे जिन तणो ॥ सनमांहे रे, सहने यानंद प्रति घणो ॥ धन्य धन्य धन्य रे, प्राज ती ए वामिनी ॥ जहि सेवा रे, शोलम जिनवर स्वामीनी ॥०॥ स्वामीनी मेचा जाग्ये पामी, प्याज घलेन प्रति नी ॥ त्रिहं जगत के नाथ नेटयो, या सम कित निर्माण || म दाबीजी कही गमविजय इसी ॥ एम उप्पन्न कुमरी स्तवी जितने गई निजस्थानक ही ॥ १० ॥ सर्वगाथा ॥ ७२ ॥
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