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२६ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. संधा समरेजो स्वामी, विनवं वं अंतरजामी ॥ रहेगुं तनगुंण वेशें,-.. पण हृदय पियु जिण देशे ॥ ११ ॥ दोहो ॥ . जिण देशे पियु संचरो, तिए देशे होजो देम ॥ अवसरें मुफ संजारजो, मत वीसारो प्रेम ॥ १२ . ॥ यत्ती ॥ प्रेम मत विसारो पनोता, लही नव नवी नारी कंता ॥ वहेला . वलजो हितवंता, कर जोडी कहे श्रीदत्ता ॥ १३ ॥ दोहो ॥ श्रीदत्ता कहे । साहिवा, वहेलाही वलजोह ॥ मुंगरजीवी जीवजो, कंबर ज्युं फलजोह ॥ ॥ १४ ॥ यत्ती ॥ फलजो तुम कहुँ शिर नामी, नवि बोली जाणुं रति कामी ॥ जाउ एम कहेतां कातुं, मत जाउ वयण ए मातुं ॥ १५ ॥दोहो कानुं वयण न बोली, पीयु सीधावण वार ॥ जेम जाणो तेम युं कहे, नेह कवण जरतार ॥१६॥ यत्ती ॥ नेहें या संघातें ए वाणी, न चढे ए . पियुजी प्रमाणी ॥ माटें करी चिंतित काज, वहेलु दरिसण देजो राज ॥ १७ ॥ दोहो ॥ रीज्यो निसुणी नारीना, वयण अमीरस तोल ॥ वीस रशे नहिं वालही, ए तहरा मुफ बोल ॥ १७ ॥ जत्ती ॥ बोल दे लेइ शेत आणा, कुमरें तब कीध प्रयाणा ॥ जातां एक पागल धावी, थ टवी अति नीषण चावी ॥ १ए ॥ दोहो ॥ चावा नील घणा जिहां, पर्व त अति उत्तंग ॥ फांस जाड कग्यां घणां, नहिं जिहां सऊन संग ॥ २० ॥ यत्ती ॥ एहवी अटवीमाहे एक नाम, दीठी एक नयरी अनिराम ॥ घर अनलिह जिहां दीसे, जोतां मानव मन हीसे ॥ २१ ॥ दोहो ॥ वाहिर सरोवर पेखीयु, अति शीतल जल चंग ॥ चरणानन पावन करी, वेठो पालें मनरंग ॥ १२ ॥ यत्ती ॥ मनरंगें वेठो जइ पालें, चिटुं दिशे निरखीने नि हाले ॥ जल बहेती दीती वदु नारी, पूज्युं एकने जइ मति सारी ॥ २३ ॥ दोहो ॥ मतिसारी पूछे तिहां, कुण नयरी कुण नूप ॥ ढुं तुम पूर्बु प्रेमा, नांखो सकल स्वरूप ॥श्शायनी॥ नांखो सकल स्वरूप विचारी,कहेशे हवे . ते पनिहारी ॥ पंचमे चोवीशमी ढाल, कहे राम सुणो उजमाल ॥२५॥
॥दोहा॥ ॥ व्यंतर देवी वासियुं,ते कहे ए पुर सार ॥ क्रीडा करवा कारणों, सां नल चतुर कुमार ॥ १ ॥ अन्य नहिं राजा इहां, नहिं कोनो अधिकार॥ ने देवी धम स्वामिनी, धमें तेहनो परिवार ॥२॥ कुमर कहे साचु कडं, जल वहो के काज॥ते कहे सांजल सापुरुप, वयण माहरु धान ॥३॥