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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
|| ढाल पन्नरमी ॥
॥ रंग बे जी रंग बे जी रंग बे जी राज ॥ ए देशी ॥ रहो ज्ञानमांहे रंग रली रंगरली रे, धर्मध्यानमांहे रंग रली रंग रली रे ॥ ए यांकी ॥ दुर्जन ए नर जब तुमें पायो, हाखो किदां लदेशो वली रे | लहेशो वली रे ॥२०॥ ॥ १ ॥ पुजलनाव विभाव ए टालो, साधो ए सहज दशा जली रे ॥ ५० ॥ २० ॥ २ ॥ क्ों हो वासित मनडुं रे वाली, करो किरिया गुणगुं मली रे ॥ गु० ॥ २० ॥ ३ ॥ एक दिवस संयम गुण साधे, धगुन कर्म जाये टली रे || जा० ॥ २० ॥ ४ ॥ ते परिणाम यशुद्धने त्यागें, या उजमा ल महावली रे ॥ म० ॥ २० ॥ ५ ॥ साधनयोगें एसाध्यनें लहेवा, पुण्ययोगें पाम्यो रली रे || पा० ॥ २० ॥ ६ ॥ या साधक हवे वाधक मूकी, पांच प्रमाद ए निर्दली रें ॥ यव नि० ॥ २० ॥ ७ ॥ कुमति कुना री संग निवारी, सुमतिवधू वरो निर्मली रे ॥ व० ॥ २० ॥ ७ ॥ होवो पटकाना पीयर सुधा, कां नव खोवो तो धनी, रे ॥ खो० ॥ २० ॥ || श्रीदत्त मुनि वाणी सुणी रोज्यो, मुनिपद कमल नर्म लली रे ॥ न० ॥ २० ॥ १० ॥ कहे नृप दीक्षा दीयो व मुने, योगदशा सुधी कली रे || सू० ॥ २० ॥ ११ ॥ रामविजय कहे धन्य ते मानव, मोह न जाये जेहने बली रे ॥ जे० ॥ २० ॥ १२ ॥ दोहो ॥ कर जोडी मुनिने कहे, जित शत्रु नूपाल ॥ न ययुं वचन पिशाचनुं, कारण कोण कृपाल ॥ १ ॥ ॥ ढाल ॥ सालुडामां मोतीडो वन रहीयो ॥ ए देशी ॥ कहे मुनिवर सुल नूप रे || सूरिजन ॥ वैर न कीजें कोइगुं ॥ वैश्यने वंशे उपनी, रूपवती सु कुमाल रे || सु० ॥ वै० ॥ १ ॥ गोरी तुऊ घरणी दुइ, योवन रूप रसाल रे ॥ सू० ॥ तु मन मानेती घणुं, सद्रुमांहे शिरदार रे || सु० ॥ यवर श्र देखाई करे, पण ताहरो बहु प्यार रे ॥ सू० ॥ वै० ॥ २ ॥ हांरे कोइक कर्मना दोपut, as दोनागण तेह रे ॥ सु० ॥ दीवी हो न गमे तुमने, मूक्यो तेहशुं नेह रे || सु० ॥ वै० ॥ ३ ॥ मनमांहे चिंते मानिनी, मुक मूकी जरतार रे ॥ सू० ॥ यवर सहूने यादरे, धिक् माहरो व्यवतार रे ॥ ॥ सू० ॥ वे० ॥ ४ ॥ मन वैराग्यें वालीएं, ज निजवापने गेह रे ॥ सु तप ज्ञानपणे करी, मरी थड़ व्यंतरी तेह रे ॥ सू० ॥ वे० ॥ ५ ॥ जव संजारी व्यापणे, संक्रमी सर्प शरीर रे ॥ सू० ॥ पेठी हो तहारा जव