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श्री शांतिनायनो रास खंग चोथो.
१६३ जो बजे तिनकी बलिहारी ॥ रामविजय कहे एसे जगतमें, तुरत चढी वेसे ध्यानतखतमें ॥ व्य० ॥ १३ ॥ इति सप्तव्यसनोपरि अध्यात्म गीतं ॥ पूर्वढाल ॥ कहे धनदत्त प्यारा हो, के वारुं कुं तुमने ॥ चोरी मत करजे दो, के लाभ दियो मुऊनें ॥ पगे लागी पयंपे हो, के धन तुं उप गारी, तें गुण मुऊ कीधो हो, के लीधो कगारी ॥ १५ ॥ जग दोय विशा मा हो, के संसारें नारी ॥ अथनें बीजो हो, के सत्संगति सारी ॥ धारखां तुम चयणां हो, के रयण करी मनसां ॥ न धरूं वंकाइ हो, के या जयकी तनमां ॥ १६ ॥ यतः ॥ पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषि तम् ॥ मूढैः पापाखमेपु, रत्नसंज्ञा विधीयते ॥ १ ॥ पूर्वढाल || हवे तुं मुफ स्वामी हो, के दास तुं तोगे ॥ कहुं कर जोडीने हो, के वचन करो मोरो ॥ वे एक मुक पासें हो, के मंत्र सवल काजू ॥ करे नूत पराजय हो, के शुं नांखुं जाजूं ॥ १७॥ तस यायह जाली हो, के मंत्र लियो कुमरें ॥ तस्कर निज स्थानक हो, के पहोतो तस समरे ॥ ढाल चोथे खमें हो, के श्रातमी एह कही || जे व्यसन न सेवे हो, तेणें नव निधि नहीं ॥ १८ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ सार्थवाह त्यांची चल्यो, जातां त्र्यनुक्रमें एक ॥ ऋटवी लही कादंबरी, उत्तरीयो सुविवेक ॥ १ ॥ जल स्थानक जोई ननुं करे रसोई तेह || एह वे याव्यो पारधी, कलवर्ण जस देह ॥ २ ॥ धनुप बाए हाथे यह्यां, सा रमेय दश पांच ॥ रुदन करे दुःखीयो घणुं, धनदत्त कहे एम वाच ॥ ३ ॥ केम दीसे एम दूमणो, कहे मुऊ घ्यागन याज ॥ ते कहे मुक स्वा मी 5वें, रोखुं हुं माहाराज || | || शामाटे तव ते कहे, गिरिकुमंगिका पानि ॥ तिहां पनीपति शूर ने, सवल शत्रु कंगाल ॥ ५ ॥ सिंहचं ना में नलो, सिंहवती तस नारी ॥ जीवित श्रुति वालही, रमणी गुणनंमा ॥॥ तेनें नही, तस विरहें श्रम नाथ ॥ मरगे तस इःख खी थो, हुं रूपन कर्म नाय ॥ ७ ॥ सार्यवाह कहें तेहने, एक बार मुक दृष्टि ॥ याणी तेहने राज कर्म, मंत्र सक्न मन इ ॥ ८ ॥ तेणें पत्नी पति कर्म याणी तेह तुरन || मंत्र साजी करी, घहो चपगार वि चित्र || २ || जीवित दान सुक्ने दियो बली जीवाडी गृह ॥ चरणे नमीने व्यायो, पतीति निज ॥ १० ॥ धनदन नित्रांची बाजीयो,