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जैनकथा रत्नकोप नाग प्राठमो.
हो, के जोगो एह नहिं ॥ पण केम लोपाये हो, के तें जे वात कही ॥ में जा ए मूक्यो हो, के तु वक्कीस करो || सुणि धनदत्त बोले हो, के दिडे हेज रखो ॥ १३ ॥ महोटो ए मुऊनें हो, के तुमें सुपसाय को ॥ एम कही न याव्यो हो, के स्थानक तेह वस्त्रों ॥ संतोप्यो तेहनें हो, के जोजन देइ नलो ॥ चोरने शीखामण हो, के पे सुगुएा निलो ॥ १४|| राग प्राशावरी || क्या करूं मंदिर क्या करूं दमरा ॥ ए देशी ॥ व्य सन विचार सुणो मेरे जाइ, इह नव परनव हे दुःखदायी ॥ दोय नेद व्य नाव हे उनके, पार न पावे रे कोन उगुनके ॥ व्य० ॥ १ ॥ द्यूत मांस मदिरा र वेस्या करत याहेडी फिरत बनसा || चोरी परनारीसें यारी, इव्यसें सातो विसन कहे नारी ॥ व्य० ॥ ॥ द्यूत वडो कुलखंपण कहीयें, उनसें इकत कबहु न लहीयें ॥ हे सबदूमें ए सिरदारा, सोइ उत्तम जो इनसें न्यारा ॥ व्य० ॥ ३ ॥ करे जीववध डर मांसको चाहे, सो फरि फरि चिहुं गति अवगाहे ॥ जो मद्यपानें रहे मतवालो, चनकुं लग्यो मनुं व्यंत तर चालो ॥ व्य० ॥ ४ ॥ सब जग धूते जो गणिका निगुरी, उनसें मिले तिनकी गति बिगरी ॥ जो मृगजीव हनत वन पेठो, उनको माटीपनो जाउँ हेठो ॥ व्य० ॥ ए ॥ परके वाहिर प्रानको लेवें, अपने अंतरप्रान कों देवे ॥ कह्यो डुदुं लोक विराधक, उनको, चोरी करे सोही धिक् धिक् जनकों ॥ वि० ॥ ६ ॥ देखत परनारी रहे फिरते, जानत नांही ऊहेरसें मरते ॥ परनिजनारी देखे दुःख पावे, तो काहेकुं तुं परघर जावे ॥ व्य० ॥ ७ ॥ ए सातोसें जे रहे लगे, तुरत जइ सुरपदसों वलगे ॥ जो उनकों जावें करी ढंगे, तो सहजानंद सुखशुं मंमे ॥ व्य० ॥ ८ ॥ सोगठ सोल कपाय निवारी, राग छेप दोन पासा मारो || यारत ध्यान चोपाइ उपारो, घपने धानंद महोल सिधारो ॥ व्य० ॥ ॥ परपरिवाद ए कबहु न कीजें, कोपूठें पीठमांस नखीजें ॥ धन रमणी पर प्रेम न धारो, मोहमदिरा दिलमें न संजारो ॥ व्य० ॥ १० ॥ कुमति बडी धूनारी है वेस्या, उनको मत कोन करदो वेसासा ॥ जिए कीया सोइ बहु ःख पाये, बहु रिनह ज्युं ऊंचे न याये ॥ व्य० ॥ ११ ॥ मनमें याद हे याहेडो, इनकों निवारे में उनको चेरो ॥ चनविद् यदत्त निवारो चोरी, पर याशा परचंचल गोरी ॥ व्य० ॥ १२ ॥ ए सातों कहे नाव विचारी,