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२६० जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. विण जुजवल नपराजण, मुफ जीव्युं किस्युं के ॥ मु० ॥ धन लावी करुधर्म, सुतामें वावरूं के ॥ सु० ॥ जय परदेशे कलंक ए, ऊतारं परं । के ॥ ए० ॥ १३ ॥ कमल उदधि हरिउरमां, वसे ए वारता के ॥ व पण व्यवसाय उदाधिमांदे, दीसे शाश्वता के ॥ दी ॥ ते माटे व्यापार, करी श्री जोडणुं के ॥ क ॥ एह तणुं सवि कहेण, एणी परें मोडगुं के ॥ ए. ॥ १४ ॥ यतः॥ या श्रीः सरोरुहांनोधि, विमोर्वदति सा श्रुतिः ॥ या पुनर्व्यवसायाधौ, लक्ष्मीः साध्यक्ष्मीदते ॥३॥ व्यापारे वस ते लक्ष्मीः, किंचित् किंचिञ्चकर्षणे ॥ अस्ति नास्तीव सेवायां, निदायां नैव संजवः ॥ ४ ॥ पूर्वढाल ॥ तेणें कह्यो निज आशय, मित्रनी आग के ॥ मि० ॥ ते पण कहे सुण साच, लरव्यु एम कागलें के ॥ ल ॥ नि जगुपथी विख्यात, कह्या उत्तम गुणी के ॥ ॥ वापरणें विख्यात, कीर्ति मध्यम तपी के ॥ की० ॥ १५ ॥ यतः॥ उत्तमाः स्वगुणैः ख्याताः,. मध्यमाश्च पितुर्गुणैः ॥ अधमामातुलैः ख्याताः, श्वसुरैश्चाऽधमाऽधमाः॥ ५ ॥ पूर्वढाल ॥ घरे आवी निजतातने, वात सर्वे कही के ॥ वा ॥ जाइश ढुं परदेश, रजा मुज यो वही के ॥ २० ॥ जनक हिये धरे कुख, कहे वत्स गुं कर्तुं के ॥ कण् ॥ व्यो ए धन अंबार, में ताहरु मन लयुं के ॥ में ॥ . ॥ १६ ॥ वित्तसो वांवित जोग, रमो रंग मालीये के ॥र ॥ चित्तढूंती परदेशनी,चिंता टालीयें के॥चिंाढाल कहीए चोथे,खमें सातमी के॥खं॥ कहे वत्स वात सुणो नृप, आगल मन गमी के॥या॥१७॥१७॥ १३ ॥
॥दोहा॥ ॥ धनद कहे सुणो तातजी, तुमें उपराजी लाल ॥ न घटे नोगववी । प्रनु, जेम विणसे सवि साच ॥ १ ॥ इण वचनें जाण्यु पिता, न रहें राख्यो एह ॥ शीख समपी पुत्रने, सिध्द करो गुणगेह ॥२॥ त्यागी कृपण थजो तुमें, निर्दय वली दयाल ॥ परदेशे होजो सही, यूर बने उजमाल ॥ ३ ॥ शिक्षा दीधा पुत्रनें, चाल्यो सबले साथ ॥ करियाएं लीधुं बदु, चित्त समरी जिननाथ ॥४॥
॥ ढाल थामी॥ ॥ देशी लुहारीनी ॥ हवे साथ संघातें हो, कुंवर हर्प धरी ॥ परदेश चाल्यो हो, मालें शकट जरी ॥ केतेएक दिवसे हो, श्रीपुर नयर सही ॥