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जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो.
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जाएयो उत्तम वंश हो ॥ रा० ॥ तांबूलादिक देश सन्मानिया ॥ बाना न रहे हंस हो ॥ रा० ॥ वगर कह्याथी सहुयें जाणीया ॥ ७ ॥ तो पण पूढे तास हो ॥ कुंवरजी ॥ कहो कुरा कारण किहांथी पधारिया || सुण स्वामी धरदास हो ॥ रा० ॥ देश अवंतिप्रनु उपगारिया ॥ ८ ॥ कहे तेहमां अनुजात हो ॥ रा० ॥ उत्तरपंथें यति रलीयामयुं ॥ कनकतिलक विख्यात हो ॥ रा० ॥ पुर अवनीमां उपे प्रति घणुं ॥ ए ॥ रिपुमर्दन तिहां राय हो ॥ रा० ॥ पाले निज प्रजा रंगें करी ॥ सबलो वरते न्याय हो ॥ रा० ॥ रूपवती तस राणी सुंदरी ॥ १० ॥ दंपती दोय रसाल हो ॥ रा० ॥ सुख विलसंतां सुत सोहामणा ॥ चार थया सुकुमार हो ॥ रा० ॥ रायें कीधां बहुत वधामणां ॥ ११ ॥ प्रथम दुर्ग देवराज हो || रा० ॥ वत्स ने कुर्लन कीर्त्तिथीवली ॥ जोडीजें पद राज हो ॥ रा० ॥ एम चिदु सुत देखी याशा फली ॥ १२ ॥ सकल कला अन्यास हो ॥ रा० ॥ जनकें शीखवीया यत्नें करी ॥ जर यौवनमां तूप हो ॥ रा० ॥ चारे पर पाव्या नृपदीकरी ॥ १३ ॥ इल प्रवसरें निजतात हो ॥ रा० ॥ यंगें निवर्तक रोगें पीडियो || राज्य प्रथमसुत हाथ हो ॥ रा० ॥ सोंपीयुं ते परजव हिंमियो ॥ १४ ॥ राज्य नहीं देवराज दो ॥ रा० ॥ पाले रूडी तें पणुं ॥ वलीया श्रम माहाराज हो ॥ रा० ॥ गोत्रीयें जोरो पहों चाड्यो घणो ॥ १५ ॥ पुण्यदशा यम ही हो ॥ रा० ॥ देश दुवा वश सढु दायादने ॥ नीसरीया थइ दीन हो ॥ रा० ॥ कीधां गुं दुवे ए वि पादने ॥ १६ ॥ दिन पतले सवि लोक हो ॥ रा० ॥ पाणी वलमां सदु ए पारकुं ॥ केहो कीजें शोक हो ॥ रा० ॥ धर्म समो नहिं कोई तारकु ॥ १७ ॥ विहडे सुत ने बंधु हो ॥ रा० ॥ विहडे वहाली परणी कामि नी ॥ पडिया कर्म बंध हो ॥ रा० ॥ एक न विहडे धर्म ए सुरमणि ॥ १८ ॥ ते माटें सुल राज हो || रा० ॥ याव्या तुम पासें कतावला ॥ बंधव ए देवराज हो ॥ रा० ॥ सेवा कारण दर्प समाकुला ॥ १९ ॥ तेच्या तुक गुण दूत हो ॥ रा० ॥ बांहे ग्रह्याने तुं तारे सही | मैं उत्तम कुल पुत्त हो ॥ रा० ॥ प्रारथीया साजण पीडे नहिं ॥ २० ॥ यतः ॥ पर पापवन्नं मा जणणि जोसि एरितं पुत्तं ॥ मा उयरेवि धरिकस, पछ.
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नंगी कर्ज जेा ॥ १ ॥ पूर्वढाल || कहे जितशत्रु नरिंद्र हो | रा० ॥