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२४७ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. दील वस्यो श्रीजिनवेद ॥ ज० ॥ १७ ॥ सात नय सप्तनंगी तणा जी, झायक जाण निजरूप ॥ नवि नमे एक श्रीजिनवर विना जी, समकित गुम स्वरूप ॥ ज० ॥ १ ॥ अनुक्रमें यौवन वय लह्यां जी, नाम लक्ष्मी वती एक ॥ नत्सव करी परणावियां जी, जोगवे सुख अतिरेक ॥०॥ २०॥ जीव अनंतवीरज तणो जी, सुरतनु नोगवी आय ॥ वावीश सागरें अवतस्यो जी, कूख लक्ष्मीवतीयाय ॥ न ॥ १ ॥ जन्मीयो कुंव र कुलकेसरी जी, नाम "सहस्रायुध” दीध ॥ पूरव नवतणो नेहलो जी, एहसंबंध प्रसिह ॥ज॥२॥ ढाल पहेली कही ए सही जी, खेम चोथा तणी सार ॥धातमे नवें चक्रधर दुवा जी, वरत्यो जयजयकार ॥॥२३॥३॥
॥दोहा॥ ॥ वालपणुं वीत्या पली, याव्युं यौवन पूर ॥ तरुणी मन मृगपाश ते, दिन दिन चढते नूर ॥ १ ॥ परणाव्यो प्रीतें करी, कनकसिरी सुकुमाल ।। कुमर सहस्रायुध सदा, विलसे लोग रसाल ॥ २ ॥ देमंकर नृप अन्यदा, पुत्र पौत्र परिवार ॥ सिंहासन वेगे करे, वंदीजन जयकार ॥३॥ बत्र धयुं शिर ऊपरें, वेदु पद चमर ढलंत ॥ युगल मनुं कलहंस, मुख अरविंद मिलंत ॥ ४ ॥ वासी कल्प ईशाननो, अमृताशन चित्रचूल ॥ आव्यो मि प्यात्वी तिहां, तिण अवसर प्रतिकूल ॥ ५ ॥ नहिं देव गुरु धर्म नहिं, नहीं पाप पर लोक ॥ ए वालक वीहामणां, वीहिनां सघलां लोक ॥ ६ ॥ मत थापे नास्तिक तणो, नहिं आस्तिक लगार ॥ पंचनूतथी ऊपन्यो, चेतनगुण सुविचार ॥ ७ ॥ वज्जायुध वलतो कहे, नहिं युक्त ए वात ॥ अनुमाने जोतां यकां, वली जोतां सादात ॥ ७ ॥
॥ ढाल वीजी॥ ॥ कपूर दुवे अति मजलो रे ॥ ए देशी ॥ वजायुध बलतुं कहे रे, सुण सुर मोरी वाण ॥ ए नास्तिकता नवि घटे रे, युक्ति रहित मन जाण रे ॥ १ ॥ प्राणी धरिये समकित शुरु ॥ सत्ता नवि टाली टले रे, जोय विचारी बुद्धि रे ॥
प्रा०॥ए बांकणी ॥ अहं सुखी अहं दुःखी रे, कुण जाणे विण जीव ॥ त्रिलु कालें अविविन्न वे रे, धारा डान सदैव रे ॥ प्रा० ॥२॥ नोक्ता ए जाग्यनो रे, उदनने दृष्टांत ॥ चेतन गुण जडमां नहिं रे, चेतन जीव कहंत रे ॥ प्रा० ॥ ३ ॥ अग्नि ज्युं धरणीकाप्टमा रे,