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२४६ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. तस सान्निध्य त्रीजे खंमें, पूरण कलश चढावो रे ॥ जि॥ ए॥ संवत.स तर पंचाशिया वर्षे, कीधो ढालबनावो ॥ शांति जिनेश्वररासने अवसर, ' परिगल वित्त ए पावो रे ॥ जि० ॥ १० ॥ श्रीगुरु सुमति विजय कवि सा निध्य, चिंतित संघलां गावो ॥ रामविजय कहे शांति प्रनुजी, मुझ मनमं . दिर आवो रे ॥ जि० ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ ३५ ॥ श्लोक तथा गाथा मली ॥ १५ ॥ सर्वढाल ॥ ३२ ॥ खंझ त्रय गाथा ॥ २०एए ॥ खंत्रय प्रास्ताविक श्लोक तथा गाथा ॥ ७६ ॥ खंत्रय ढाल ॥ ७ ॥ इति श्री शांतिजिनप्रबंधे प्राकृतवंधेछादशनवनिबंधे सत्यार्थसंधे कृतसुकतानुसंधे धम रदत्तमित्रानंदचरित्रानुविक्षपष्ठसप्तमनववर्णननामा तृतीयः खंमः समाप्तः३॥
॥अथ चतुर्थखमस्य प्रारंनोऽयम्॥
॥दोहा॥ ॥ चनविह चमुह जिन कह्यो, दान शील तप नाव ॥ धर्म ए चार प्रकारनो, प्रणमुं जवजल नाव ॥ १ ॥ ज्ञान अजय अन्न औपधे, चिटुं। जे होय दान ॥ ज्ञानवंत निर्नय दुवे, सुखी नीरोगी निदान ॥ २ ॥प्रय म दान अनुयें कह्यु,अर्थ सह्यातुं सार ॥ ते जो पात्रे दीजीयें, तो हुवे नव निस्तार ॥ ३ ॥ तत्त्व विचार ए वुदिफल, फल व्रतधारण देह ॥ पात्रदान ए अर्थफल, वचन प्रीतिकर जेह ॥ ४ ॥ शील कुलकम यात्मगत, त्रि विध होय जगमांहि ॥ वेदुथी यश सुख संपजे, त्रीजो मोद उपाय ॥५॥ सात्त्विक राजस तामसी, तप निहुँ ने होय ॥ दोय नेद किंचित् हो, सात्त्विकमां गुण जोय ॥ ६ ॥ नाव तणा बहु जेद वे, गुन यशुन वि स्तार ॥ शुन आदरवा जिन कह्या, अशुन तणो परिहार ॥ ७ ॥ चिटुं ने शुरू धर्मने, दुं नित्य करुं प्रणाम ॥ खेम कहूँ चोथो हवे, सुणो मन । राखी नाम ॥ ७ ॥ देवलोक सुख जोगवे, श्री अपराजित इंद ॥ हवे जिहां । आवी अवतरे, ते निसुणो जविवृंद ॥ ५ ॥
॥ ढाल पहेली॥ ॥ राणी पवे रायने ॥ ए देशी ॥ पूर्व विदेहें जंवतणो जी, सती नदीनी रे पास ॥ मध्यविजय मंगलावती जी, जिहां बहु मुगुणिनिवास ॥ १ ॥