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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
जेइ दीक्षा हे करजो शुचि काय के ॥ न० ॥ १५ ॥ तेह तपोधनने नमी, वे बंधव हे कनकश्री साथ के ॥ बेसी विमानें चालीया, सुनगा पुरी हे श्राव्या नरनाथ के ॥ ना० ॥ २० ॥ लाख बर्हेतालीश गज नंला, तेता वली हे रथ तुरग वखाप के ॥ सोल सहस्र सेवे जला, अतुली बल हे महोटा राजान के ॥ न० ॥ २१॥ वे बांधव धरा जोगवे, अतुलीबल हे बे वासु देव के ॥ वत्रिश सहस्र अंतेवरी, हरिनें घर हे सुर सारे सेव के ॥ न० ॥ २२ ॥ हवे कनक सिरीनो सुणो, सुननावें हे दीक्षा अधिकार के | त्रीजे उगणत्रीशमी, दाल नांखी हे रामविजय नदार के || ||२३|| ८३७ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ हवे यावी समोसा, श्रीस्वयंप्रन जिनराज ॥ चच विह देहें परवखा, साथै वदु मुनिराज ॥ १ ॥ पावन करता पाउने, गुण अनंत धरिहंत ॥ समवसरण देवेंरच्युं, नामंगल जलकंत ॥ २ ॥ वेगें दीधि वधामणी, वनपालक ते िवार ॥ लाघो साडावार लाख, सोवनो अंबार ॥ ३॥ वे बंधव वंद चव्या, कनकसिरी सुरंग ॥ सेना लइ चतुरंगिणी, श्राव्या श्री जिनसंग ॥ ४ ॥ समवसरण दीतुं तिहां, वाध्या मनना कोड || वेहु | वंधव यावी करी, वंदे बिदु कर जोडि ॥ ५ ॥ जिन देखीनें उल्लस्या, जिम ! कोकिल मकरंद ॥ करे स्तवन जिनराजनुं, मनमां घरे यानंद ॥ ६ ॥ अथ श्री जिनस्तुतिः ॥ भुजंगीचंद ॥ जगन्नाथनें ते नमे हाथ जोडी, करे वीनति नक्ति शुं मान मोडी ॥ कृपानाथ संसारकूपार तारु, लधुं पुण्यथी याज दीदा र तहारुं ॥ १ ॥ सोहिलो मिले राजदेवादि नोगो, परं दोहिलो एक तुक नक्तियोगो ॥ घणा कालथी तुं लह्यो स्वामी मीठो, प्रनो पारगामी सह दुःख नीठो ॥ २ ॥ चिदानंदरूपी परब्रह्म लीला, विलासी विनो त्यक्तकामानि कीला ॥ गुणाधार योगीश नेता अमायी, जय त्वं विनो नूतले सौख्य दायी ॥ ३ ॥ न दीवी जेणें ताहरी योगमुड़ा, पढ्या रात दिवसें महा मोह निश || किसी तास होशे गति ज्ञानसिंधो, जमंतां नवें हे जगजीव वंधो ॥ ४ ॥ सुवास्पंदि ते दर्शनं नित्य देखे, गणुं तेहनो हुं विनो जन्म लेखें । त्वदाज्ञावरों जे रह्या विश्वमांहे, करे कर्मनी हानि कण एक मां हे ॥ ५ ॥ जिनेशाय नित्यं प्रनाते नमस्ते, नवे ध्यान होजो त्वदीयं सम स्ते || स्तवी देवनां देवने हर्ष पूरे, मुखांनोज जाने नजी हेज करें ॥६॥
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